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भगवान की दिव्यध्वनि में निःस्पृह भाव से आया - "हे भव्य ! देवदर्शन की अचिन्त्य महिमा है और दिव्यध्वनि तो मिथ्यात्वरूप अन्धकार की विनाशक है ही; अत: तुम ध्यान से सुनो। देवदर्शन की महिमा पु में कहा गया है - हे भव्य ! देवाधिदेव जिनेन्द्रदेव का दर्शन पापों को नष्ट करनेवाला है, स्वर्ग का सोपान
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है, मोक्ष का साधन है। जिनेन्द्र देव के दर्शन से और साधु परमेष्ठियों की वन्दना से पाप इसतरह क्षीण हो | जाते हैं, जैसे हाथ की चुल्लू का पानी धीरे-धीरे जमीन पर गिर ही जाता है, वह बहुत देर तक हाथ की चुल्लू में नहीं रह सकता ।
वीतराग भगवान की परम शान्त मुद्रा भव्य जीवों को आत्मानुभूति में निमित्त बनती हैं और अधिक क्या कहें जिनदर्शन से जन्म-जन्म के पाप नष्ट होते हैं। पर, ध्यान रहे! दर्शन समझ पूर्वक होना चाहिए । हे भव्य 'देव' शब्द बहुत व्यापक है, यह अनेकप्रकार के देवों के अर्थ में प्रयुक्त होता है; पर यहाँ देवी का अर्थ जिनेन्द्रदेव है। इसीतरह 'दर्शन' शब्द के भी अनेक अर्थ है; पर यहाँ 'दर्शन' का अर्थ न केवल र्थं | अवलोकन करना है; बल्कि उनके स्वरूप को समझकर भक्तिभाव सहित जिनेन्द्रदेव को नमन करना, वन्दन करना और उनके गुणस्मरणपूर्वक स्वयं को उन जैसा बनने की भावना भाना भी है। इतना किए बिना देवदर्शन का कोई अर्थ नहीं है।
भले ही वे बुद्ध - वीर - जिन - हरि-हर - ब्रह्मा, राम और केशव आदि किसी भी नाम से कहे जाते हों; पर उन जीवों का वीतरागी व सर्वज्ञ होना अनिवार्य है । इनके बिना कोई भी जीव या आत्मा परमात्मा नहीं कहला सकता। पूर्ण वीतरागता व सर्वज्ञता को प्राप्त आत्मा ही परमात्मा है। उन्हीं को अरहंत या जिनेन्द्र कहते हैं। उन्हें ही जिनागम में सच्चा देव माना गया है। भक्तिभाव सहित उनके दर्शन - वन्दन करने को | देवदर्शन कहते हैं । प्रत्येक सामान्य श्रावक को नित्यप्रति प्रतिज्ञापूर्वक देवदर्शन करना चाहिए।” जब | साक्षात् अरहंतदेव के दर्शन उपलब्ध नहीं होते, तब उनके स्थान पर धातु या पाषाण की तदाकार प्रतिमा
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है, तथापि जगत के जीव आपके दर्शन और धर्मोपदेश से वंचित न रहें, एतदर्थ यदि आपकी दिव्यवाणी द्वारा हमारा समाधान हो जावे तो हमारा जीवन धन्य हो जायेगा । "
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