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(२६| सुरेन्द्रदत्त राजा ने उनका पड़गाहन किया और उन्हें विधिपूर्वक आहारदान दिया। प्राप्त पुण्य के फलस्वरूप
उनके यहाँ पञ्चाश्चर्य हुए। | मुनिराज संभवनाथ चौदह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में मौन धारण करके तप करते रहे।
एक दिन दीक्षा वन में शाल्मली वृक्ष के नीचे कार्तिक कृष्णा चतुर्थी के दिन शाम के समय ऐसे ध्यानारूढ़ हुए कि चारों घातिया कर्म निराश्रय होकर स्वत: झड़ गए और अनादि से अबतक के असंभव काम को संभव करके उन्होंने अपना संभवनाथ नाम सार्थक कर लिया। उन्हें अनन्त चतुष्टय प्राप्त हो गये। उसीसमय कल्पवासी और ज्योतिष्क आदि तीनों प्रकार के मध्यलोक वासी देवों द्वारा केवलज्ञान का कल्याणकारी मंगलमय महा-महोत्सव मनाया गया।
जिसप्रकार छोटे-छोटे अनेक पर्वतों से घिरा सुमेरु शोभित होता है, उसीप्रकार संभवनाथ प्रभु सुशोभित हो रहे थे। वे दो हजार वर्ष तक पचास पूर्व धारियों से परिवृत्त थे। एक लाख उन्नीस हजार तीन सौ उपाध्याय और नौ हजार छह सौ अवधिज्ञानी मुनिराज वहाँ मौजूद थे। पन्द्रह हजार केवलज्ञानी तथा उन्नीस हजार आठ सौ विक्रियाऋद्धि के धारक उनकी धर्मसभा में उपस्थित थे। बारह हजार एक सौ पचास मन:पर्ययज्ञानी एवं बारह हजार वादी भी उनकी धर्मसभा में थे। इसप्रकार सब मिलाकर दो लाख मुनियों से धर्मसभा सुशोभित हो रही थी।
इनके अतिरिक्त तीन लाख बीस हजार आर्यिकायें एवं तीन लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकायें थीं। असंख्यात देव-देवियाँ और असंख्य तिर्यंच उनकी स्तुति करते थे।
१००८ नामों से स्तुत्य संभवनाथ स्वामी की दिव्यध्वनि सुनकर सभी भव्य श्रोताओं के मन मयूर हर्षित हो ऐसे उत्साहित हो उछलने लगे मानो वे नृत्य ही कर रहे हों।
एक श्रोता के मन में जिज्ञासा उठी - "हे प्रभो ! आप ही हमें देवदर्शन की विधि और उसके लाभ के संबंध में कुछ बतायें ? यद्यपि आप वीतराग हैं, अत: आपको आपकी महिमा से कोई प्रयोजन नहीं ||