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| होओ। तुम्हें आत्मप्रतीति तो है ही, और अब तुम्हारे तीन भव शेष है, पश्चात् तुम तीर्थंकर होकर मोक्ष को | प्राप्त करोगे।"
मुनिराज का ऐसा वीतराग उपदेश सुनकर वज्रनाभि चक्रवर्ती अति प्रसन्न हुए और उनको भी उत्तम वैराग्य | भावनाएँ जाग्रत हुईं। शरीर एवं भोगों से उनका चित्त उदास हो गया और धर्म के प्रति उत्साह अत्यधिक | बढ़ गया। उन्होंने मुनिराज से अत्यन्त विनयपूर्वक मुनिदीक्षा देने की प्रार्थना की। "हे प्रभो! इस दुःखमय | संसार से मेरा उद्धार करो। रत्नत्रयरूपी नौका द्वारा मैं भी इस भवसमुद्र से पार होना चाहता हूँ। संसार में
कहीं सुख नहीं है, इसलिये तीर्थंकर भी संसार को त्यागकर मोक्ष की साधना करते हैं। हे प्रभो! मैं भी | मुनिदीक्षा लेकर तीर्थंकर जिस पथ पर चले उसी पथ पर चलना चाहता हूँ।"
मुनिराज ने कहा - "हे भव्य! तुम्हारी भावना उत्तम है। तुम चक्रवर्ती की सम्पदा को असार जानकर त्यागने हेतु तत्पर हुए हो और सारभूत रत्नत्रय को धारण करना चाहते हो तुम्हें धन्य है!" ऐसा कहकर क्षेमंकर मुनिराज ने वज्रनाभिचक्रवर्ती को मुनिपद की दीक्षा दी। वे चक्रवर्ती अब राजपाट छोड़कर जिनमुद्राधारी मुनि हो गये। छह खण्ड की विभूति से उन्हें तृप्ति नहीं हुई, इसलिये मोक्ष का अखण्ड सुख साधना चाहते हैं। __गजराज के ऊपर रत्नजड़ित होदे पर आरूढ़ होकर चलने वाले चक्रवर्ती अब नंगे पाँव वनकी पथरीली भूमि पर चलने लगे। रत्न-मणिजड़ित वस्त्रालंकारों को छोड़कर नग्न-दिगम्बर मुद्राधारी वे मुनिराज अब रत्नत्रयरूपी आभूषणों से सुशोभित हो रहे थे। सुवर्ण-थालों में भोजन लेने वाले अब हथेलियों में खड़ेखड़े आहार करने लगे। चौदहरत्न छोड़कर उन्होंने रत्नत्रयरूप तीन रत्न ग्रहण किये, नव निधानों को त्यागकर अखण्ड आनन्द निधान की साधना में लग गये।
एक बार वे मुनिराज वन की एक शिलापर बैठे-बैठे आत्मध्यान में लवलीन थे। सिद्ध भगवान समान अपने आत्मा का बारम्बार अनुभव करते थे। जंगल में आसपास क्या हो रहा है उसका उन्हें रंचमात्र भी लक्ष्य नहीं था। "मैं तो देह से भिन्न आत्मा हूँ मुझमें परिपूर्ण परमात्मा शक्ति विद्यमान है.." इत्यादि ध्यान || में एकाग्र थे कि इतने में दूर से एक तीर सनसनाता हुआ आया और मुनिराज का शरीर विंध गया।
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