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सबको बड़ा आनन्द होता था। एक बार राजकुमार अग्निवेग वन में जाकर वन की शोभा निहार रहे थे, वहाँ अचानक उन्होंने एक साधु को देखा । वे साधु आत्मचिंतन में एकाग्र थे। उन्हें देखकर अग्निवेग को हार्दिक प्रसन्नता हुई, निकट जाकर उनकी वंदना करके वह उनके निकट बैठ गया और आत्मा का विचार करने लगा कि - "अहा ! धन्य है ऐसी साधुदशा!" कुछ ही देर में मुनिराज का ध्यान पूर्ण होने पर पुन: नमस्कार किया और मुनिराज ने उन्हें धर्मवृद्धि का आशीर्वाद देकर कहा - "हे भव्य! आत्मा के सम्यक् स्वभाव को तो तुमने जाना है, अब उस स्वभाव को विशेषरूप से साधने के लिए तुम मुनिदशा का चारित्र अंगीकार करो, अब तुम्हारा संसार अति अल्प शेष रहा है, मनुष्य के तीन भव करके तुम मोक्ष प्राप्त करोगे। पहले || तुम चक्रवर्ती होगे और फिर तीर्थंकर होकर मोक्ष को प्राप्त करोगे।"
मुनिराज के मुख से अपने मोक्ष की बात सुनकर अग्निवेग अति आनन्दित हुआ। उसे संसार के प्रति तीव्र वैराग्य जागृत हुआ। “अरे, मुझे तो अल्पकाल में मोक्ष साधना है, अत: इस राजपाट में बैठे रहना मेरे लिए उचित नहीं है, मैं तो आज ही मुनि बनकर आत्मसाधना में एकाग्र होऊँगा।" इसप्रकार युवावस्था में उन राजकुमार ने विरागी होकर मुनिराज के निकट जिनदीक्षा ली, साधुदशा धारण की।
पूर्वभव का कमठ जो कि नरक में गया था और वहाँ से निकलकर विशाल अजगर हुआ था, वह अजगर भी विदेहक्षेत्र के इसी वन में रहता था। वह शिकार की खोज में इधर-उधर भटकता रहता था। वह जंगल के पशुओं को पूरे का पूरा निगल जाता था। एक दिन मुनिराज अग्निवेग ध्यान में लीन थे कि वह अजगर वहाँ आ पहुँचा और उसने फुफकारते हुए क्रोधपूर्वक मुनिराज को निगल लिया। मुनिराज ने आत्मध्यान पूर्वक समाधिमरण किया और सोलहवें स्वर्ग में गये। देखो तो सही उनकी क्षमा! अजगर ने निगल लिया तथापि उस पर क्रोध नहीं किया और स्वयं आत्मा की साधना में लीन रहे। क्रोध में दुःख है और आत्मा की साधना में ही परम शांति है। ऐसे शांत भावों से उन्होंने समाधिमरण किया और सोलहवें स्वर्ग में गये और अजगर क्रोधी भाव के कारण पुनः छठवें नरक में जा पड़ा। दोनों की आयु बाईस सागर ||
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सागर ।। २२