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| उनमें से पुण्य-पाप के फलानुसार एक तो स्वर्ग में गया और दूसरा नरक में। परिणामों की विचित्रता से यह सब संसार के सुख-दुःख का दृश्य पाठकों को यह प्रेरणा देता है कि हमें व सब अवसर सौभाग्य के सुलभ हैं, जिनमें हम कुछ ऐसा कर सकते हैं जो अभी तक नहीं किया।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जीव पहले मरुभूति था, फिर हाथी हुआ और आत्मज्ञान प्राप्त किया, वहाँ से | समाधिमरण करके बारहवें स्वर्ग में शशिप्रभ नामक देव हुआ। स्वर्ग की दिव्य विभूति देखकर वह | आश्चर्यचकित हो गया और अवधिज्ञान से जान लिया कि मैंने हाथी के पूर्वभव में धर्म की आराधना सहित
जो व्रतों का पालन किया था उसका यह फल है, ऐसा जानकर उसे धर्म के प्रति विशेष भक्ति-भावना हुई, | पूर्वभव में आत्मज्ञान प्रदान करनेवाले मुनिराज के उपकार का पुनः पुनः स्मरण किया, पश्चात् स्वर्ग में विराजमान शाश्वत जिनबिम्ब की पूजा की। वह असंख्यात वर्षों तक स्वर्गलोक में रहा। वहाँ बाह्य में अनेकप्रकार के कल्पवृक्षों से सुख-सामग्री प्राप्त होती थी और अंतर में चैतन्य-कल्पवृक्ष के सेवन से वह सच्चे सुख का अनुभव करता था। देखो तो सही, वीतराग धर्म की आराधना से एक पशु भी देव हो गया और कुछ ही काल पश्चात् तो वह भगवान होगा!
कमठ का जीव जो कि सर्प हुआ था, वह मरकर पाँचवे नरक में गया और असंख्य वर्ष तक तीव्र दुःख भोगे। उसकी क्षुधा-तृषा का कोई पार नहीं था, उसके शरीर के प्रतिदिन हजारों टुकड़े हो जाते थे, लोहे का विशाल पिण्ड भी गल जाये ऐसी तो वहाँ सर्दी थी, करवत और भालों से उसका शरीर कटता और छिदता था, आत्मा का ज्ञान तो उसे था नहीं और अच्छे भाव भी नहीं थे, अज्ञान एवं अशुभ भावों से वह अत्यन्त दुःखी होता था। पूर्वभव में अपने भाई के प्रति जो तीव्र क्रोध के संस्कार थे, वे भी उसके छूटे नहीं थे। क्रोध में नरक से निकलकर वह एक भयंकर अजगर हुआ।
भगवान पार्श्वनाथ का जीव स्वर्ग से चलकर जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र में जन्मा । उस पर्याय में उसका | नाम था अग्निवेग। अग्निवेग आत्मज्ञान साथ लेकर आये थे। एक छोटे से ज्ञानी की बाल चेष्टाएँ देखकर || २२
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