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२८५| शांति से रहता था। हाथी की ऐसी शांत चेष्टा देखकर दूसरे हाथी उसकी सेवा करते, वन के बन्दर तथा अन्य ||
पशु भी उससे प्रेम करते और सूखे हुए घास-पत्ते लाकर उसे खिलाते हैं। | पूर्वभव का उसका भाई कमठ, जो क्रोध से मरकर विषधर सर्प हुआ था, वह भी इसी वन में रहता
था और जीव-जन्तुओं को मारकर खाता था तथा नवीन पापबंध करता था। एक दिन प्यास लगने से वह हाथी सरोवर के निकट आया, सरोवर के किनारे वृक्षों पर अनेकों बन्दर रहते थे, वे उसे देखकर बड़े प्रसन्न हुए। सरोवर का स्वच्छ जल पीने के लिए वह हाथी कुछ भीतर तक गया कि उसके पाँव कीचड़ में फंस गये बहुत प्रयत्न करने पर भी वह निकल नहीं सका। तब उसने आहार-जल का त्याग करके समाधिमरण की तैयारी की वह पंचपरमेष्ठी का स्मरण करके आत्मा का चिंतन करने लगा। वैराग्यपूर्वक वह ऐसा विचारने लगा कि “अरे, अज्ञान से कुमरण तो मैंने अनन्तबार किये, किन्तु यह अवतार सफल है कि जिसमें समाधिमरण का सुअवसर प्राप्त हुआ है। श्री मुनिराज ने मुझ पर महान कृपा करके देह से भिन्न आत्मस्वरूप मुझे समझाया, मेरे चैतन्यनिधान मुझे बतलाये । उनकी कृपा से मैंने अपना निजवैभव अपने आत्मा में देखा है। बस, अब इस देह से भिन्न आत्मा की भावना द्वारा मैं समाधिमरण करूँगा।"
हाथी को कीचड़ में फंसा देखकर वन के बन्दर उसे बचाने के लिए किलकारियाँ मारने लगे, परन्तु वे छोटे-छोटे बन्दर उसे कैसे बाहर निकालते ? इतने में सर्प हुआ कमठ का जीव फुकारता हुआ वहाँ आया, हाथी को देखते ही पूर्वभव के संस्कार के कारण उसे तीव्र क्रोध आया और दौड़कर हाथी को दंश मार दिया। कालकूट विषैले सर्प के दंश से हाथी को विष चढ़ गया और कुछ ही देर में उसका प्राणान्त हो गया। परन्तु इस बार उसने पहले की भांति आर्तध्यान नहीं किया, इसबार तो आत्मा के ज्ञानसहित धर्म की उत्तम भावना भाते-भाते उसने समाधिमरण किया और शरीर को त्यागकर बारहवें स्वर्ग में देव हुआ।
सर्प ने हाथी को डस लिया यह देखकर बन्दरों को बड़ा क्रोध आया और उन बन्दरों ने उस सर्प को मार डाला, पापी सर्प आर्तध्यान से मरकर पाँचवें नरक में जा पहुँचा। किसी समय जो दोनों सगे भाई थे, || २२