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अरे गजराज ! तू शांत हो, यह पशु पर्याय कहीं तेरा स्वरूप नहीं है, तू तो शरीर से भिन्न चैतन्यमय आत्मा है, आत्मा को जाने बिना तूने अनेक भवों में दुःख भोगे हैं, इसलिए अब आत्मा के स्वरूप को समझकर सम्यग्दर्शन प्राप्त कर ! सम्यग्दर्शन ही जीव को महान सुखकारी है। राग और ज्ञान को एकमेक अनुभवने का अविवेक तू छोड़...! तू प्रसन्न हो... सावधान हो... और सदा उपयोगरूप स्वद्रव्य ही मेरा है - ऐसा अनुभव कर ! उससे तुझे अति आनन्द होगा । तू निकटभव्य है, इसलिए आज ही ऐसा अनुभव कर !
मुनिराज उसे आत्मा का शुद्ध स्वरूप बतलाते हैं । अरे जीव, तेरा आत्मा अनंत गुण रत्नों का भण्डार है... यह हाथी का विशाल शरीर तो पुद्गल है, यह कहीं तू नहीं है, तू तो ज्ञानस्वरूप है, तेरे ज्ञानस्वरूप में पुण्य-पाप नहीं है। तू तो वीतरागी आनन्दमय है - ऐसे अपने स्वरूप को अनुभव में ले ।"
ऐसे अनेक प्रकार से मुनिराज ने सम्यग्दर्शन करने का उपदेश दिया, जिसे सुनकर हाथी के परिणाम अंतर्मुख हुए और अंतर में अपने आत्मा के सच्चे स्वरूप का अवलोकन करने से उसे सम्यग्दर्शन हो गया, परम आनन्द का अनुभव हुआ... उसे ऐसा भासित हुआ कि "अमृत का सागर मेरे आत्मा में लहरा रहा है... परभावों से भिन्न सच्चे सुख का अनुभव आत्मा में हो रहा है। क्षणमात्र ऐसे आनन्द के अनुभव से अनन्त भव की थकान उतर जाती है। "ऐसे आत्मा का बारम्बार अनुभव करने का उसे मन हुआ । उपयोग पुनः पुनः अंतर में एकाग्र होने लगा। उस अनुभव की अचिन्त्य अपार महिमा को कोई पार नहीं था । आत्म | उपयोग सहजरूप से शीघ्रतापूर्वक अपने स्वरूपोन्मुख होने से सहज निर्विकल्प स्वरूप अनुभव में आया । चैतन्यप्रभु अपने एकत्व से आकर निजानन्द में डोलने लगा । वाह ! आत्मा का स्वरूप कोई अद्भुत है! परमतत्त्व को पाकर मैंने चैतन्य प्रभु को अपने में ही देखा । "
इसप्रकार आत्मानुभूति होने से हाथी के आनन्द का कोई पार नहीं रहा। उसकी आनन्दमय चेष्टाएँ तथा आत्मशांति देखकर मुनिराज को भी लगा कि इस हाथी को आत्मज्ञान हो चुका है, मुनिराज ने प्रसन्न होकर, हाथ उठाकर हाथी को आशीर्वाद किया। संघ के हजारों लोग भी यह दृश्य देखकर अति हर्षित हुए। एक क्षण में यह क्या हो गया... वह सब आश्चर्य से देखने लगे ।
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