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लगा। एक बार चोरी करते हुए पकड़े जाने पर उसे भयंकर मार पड़ी, जिससे वह बहुत दुःखी हुआ, परन्तु उसके भावों में कोई परिवर्तन नहीं आया। अन्त में क्रोध से मरकर वह कुक्कट नाम का सर्प हुआ।
मरुभूति तो मरकर हाथी हुआ, परन्तु राजा अरविन्द को उसकी कोई खबर नहीं मिलने से वह चिन्तित | रहने लगा कि मरुभूति मेरा मंत्री अभी तक क्यों नहीं लौटा ? उन्हीं दिनों वहाँ एक अवधिज्ञानी मुनिराज
का आगमन हुआ। उनका उपदेश सुनकर राजा को हार्दिक प्रसन्नता हुई। राजा ने उनसे पूछा कि हमारा मंत्री | मरुभूति कहाँ है ? और अभी तक क्यों नहीं आया ?
मुनिराज ने कहा - "हे राजन्! मरुभूति को तो उसके भाई कमठ ने मार डाला है और उसे हाथी की पर्याय मिली है तथा कमठ भी मरकर सर्प हुआ है।"
यह सुनकर राजा को अत्यन्त दुःख हुआ। वह विचारने लगा - "अरे! कैसा है यह संसार! दुष्ट कमठ के संग से मरुभूति भी दुःखी हुआ।" ___ मुनिराज ने समझाया कि हे राजन्! इस संसार में जीव जबतक आत्मज्ञान नहीं करता तबतक उसे ऐसे जन्म-मरण होते ही रहते हैं। अपने हित के लिए दुष्ट अज्ञानी जीवों का संग छोड़कर ज्ञानी-धर्मात्माओं का संग करना योग्य है। राजा उदास चित्त से महल में चला गया। एक बार वह राजमहल की छत पर बैठाबैठा मुनिराज के उपदेश का स्मरण करके वैराग्य का विचार कर रहा था। इतने में आकाश में रंग-बिरंगे मेघ एकत्रित होने लगे और कुछ ही देर में ऐसी रचना हो गई मानो एक सुन्दर जिनमन्दिर हो। अतिसुन्दर दृश्य था वह । उसे विचार आया - "आकाश में ऐसे ही सुन्दर जिनमन्दिर का निर्माण कराऊँगा।" ऐसे विचार आते ही उसने उस मन्दिर की आकृति बना लेने की तैयारी की। परन्तु उसने कलम हाथ में ली ही थी कि देखते ही देखते वह मेघ रचना बिखर गई और मन्दिर की आकृति विलीन हो गई।
यह देखकर राजा आश्चर्यचकित हो गया..."अरे! ऐसा अस्थिर संसार! ऐसे क्षणभंगुर संयोग।... यह || राजपाट, यह रानियाँ यह शरीरादि...सब संयोग इन मेघों की भांति बिखर जानेवाले विनाशक हैं। अरे, || २२