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जब संवर द्वेष की ज्वाला में जल रहा था और धरणेन्द्र पार्श्वनाथ की भक्तिवश राग की लपटों में झुलस | रहे थे; उसीसमय मुनिराज दोनों के प्रति समान भाव रखे आत्मसाधना में तत्पर थे और ज्ञाता-दृष्टाभाव ला से पुण्य-पाप का खेल देख रहे थे।
ध्यानस्थ मुनि पार्श्वनाथ के अन्तर्मुखी अनन्त पुरुषार्थ से कुछ ही समय में केवलज्ञान होने पर उपसर्ग ॥ स्वत: ही दूर हो गया; क्योंकि केवली पर उपसर्ग होता ही नहीं है। प्रभु का ऐसा अतिशय देखकर धरणेन्द्र
एवं उनके साथ आई पद्मावती ने पार्श्वप्रभु की स्तुति की। ___ “प्रभु! आपके केवलज्ञान की महिमा अद्भुत है, हम आपकी रक्षा करनेवाले कौन होते हैं? आप तो स्वयं अनन्त बल के धनी हैं, वज्र जैसा आपका शरीर है। अज्ञानी जीव वीतरागियों पर भी राग-द्वेष करके व्यर्थ ही कर्मबंध करते हैं।
प्रभो! आपके प्रताप से हमें धर्म की प्राप्ति हुई और हमारी घोर दुःखों से रक्षा हुई। हे प्रभो! आपके नाम के साथ हमारा नाम जुड़ जाने से हमें सहज ही सम्मान मिल गया। अन्यथा हम जैसे तुच्छ असंयमियों की क्या गिनती है ? प्रभु! आपका नाम पारस है न! और पारस पत्थर के स्पर्श से जब लोहा सोना हो जाता है तो आप तो चैतन्यरत्न हैं। यदि आपका सान्निध्य पाकर हम भी कृतार्थ हो गये तो इसमें क्या आश्चर्य ? जो भी आपकी शरण में आयेगा वह स्वयं पारस बन जायेगा।।
सचमुच! परम पूज्य तो आप ही हैं; क्योंकि कार्यपरमात्मा स्वरूप ही श्रावकों द्वारा अष्टद्रव्य से पूजने योग्य हैं। हम भी आपके चरणों की बारम्बार वन्दना करते हैं। इसकारण आपके भक्तजन हमें अपना साधर्मी समझ कर यथायोग्य सम्मान करते हैं तो करें; परन्तु देखादेखी कुछ नासमझ लोग जब हमारा जरूरत से ज्यादह आदर करने लगते हैं तो हमें स्वयं उनके भोलेपन पर तरस आता है और आपके समक्ष अपना बहुमान होते देख लजा भी आती है; पर क्या करें ? ना समझ लोग ही दुनिया में अधिक हैं जो गतानुगतिक होते हैं, भेड़चाल चलते हैं।"
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