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पारस पत्थर छूने से ज्यों, लोह स्वर्ण हो जाता है। पार्श्वप्रभु की शरणागत से, पाप मैल धुल जाता है।। जो भी शरण गहे पारस की, आनंद मंगल गाता है।
पार्श्व प्रभु के आराधन से, पतित पूज्यपद पाता है। वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों में भगवान पार्श्वनाथ बहु चर्चित तीर्थंकर हैं। उनकी अधिकांश प्राचीन | मूर्तियाँ नाग के (सहस्र) फणोंवाली मिलती है। उसके पीछे एक पौराणिक कथा है, जिसमें धरणेन्द्रपद्मावती का नाम उभर कर आता है।
कहा जाता है कि जब मुनि पार्श्वप्रभु तपश्चरण करते हुए एक वन प्रदेश में ध्यानस्थ थे, तब एक संवर नामक देव का विमान वहाँ से निकला और मुनि पार्श्वनाथ के ऊपर आते ही अटक गया। संवर देव ने विमान के अटकने के कारणों पर उहापोह किया। उसे ध्यान आया कि “जब कोई तीर्थंकरादि महापुरुष अथवा कोई शत्रु के ऊपर से देव विमान जाता है तो वह स्वत: रुक जाता है। अत: देखना चाहिए कि विमान रुकने का कारण क्या है ?” विमान से नीचे उतर कर देखा तो देखते ही उसे जातिस्मरण हो गया। देवों को अवधिज्ञान तो होता ही है। अत: उसे मुनि पार्श्वनाथ को देखते ही अपना पुराना वैर-विरोध याद आ गया और उसने सोचा कि "जिसके कारण मेरा विमान अटका है, यह वही जीव है जिसके कारण मेरा अपमान हुआ था।" फिर क्या था, उसने उन पर नानाप्रकार से ऐसे भयंकर उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया, जिसे मानो प्रकृति भी सहन नहीं कर सकी। धरणेन्द्र का आसन डोलने लगा, अवधिज्ञान से उसने जाना कि हम पर परम उपकार करनेवाले पार्श्वप्रभु पर उपसर्ग हो रहा है। तुरन्त धरणेन्द्र वहाँ जा पहुँचे और नाग का रूप धारण कर मुनि पार्श्व पर फण फैला कर उपसर्ग दूर करने में तत्पर हुए।
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