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वे ही चक्री अन्त समय में नीर बूंद तरसे।
करम फल भुगतहिं जाय टरै ।।३।। जरत कुंवर जिसकी रक्षाहित, वन-वन जाय फिरे । अन्त समय में वही मौत के कारण आय बने ।। ऐसी दशा देख कर प्राणी, क्यों नहिं स्वहित करे।
करम फल भुगतहिं जाय टरै ।।४।। बहुत भले काम करने पर भी यदि कभी/किसी का/जाने अनजाने दिल दुःखाया हो, अहित हो गया हो अथवा अपने कर्तृत्व के झूठे अभिमान में पापार्जन किया हो तो वह भी बिना फल दिए नहीं छूटता। तीर्थंकर मुनि पार्श्वनाथ पर कमठ का उपसर्ग, आदि तीर्थंकर ऋषभमुनि को एक वर्ष तक आहार में अन्तराय इस बात के साक्षी हैं कि तीर्थंकर जैसे पुण्य-पुराण पुरुषों को भी अपने किए पूर्वकृत कर्मों का फल भोगना ही पड़ा था ! अतः हमें इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखने की जरूरत है कि भूल-चूक से भी, जानेअनजाने में भी हम किसी के प्राण पीड़ित न करें। अपने जरा से स्वाद के लिए हिंसा से उत्पन्न आहार ग्रहण न करें, अपनी पूरी दिनचर्या में अहिंसक आचरण ही करें।
जब भगवान नेमीनाथ की आयु मात्र एक माह शेष रही तो वे समवशरण सहित गिरनार पर्वत पर पहुँचे । वहाँ समवशरण विघट गया। प्रभु मौन धारण कर गिरनार के सर्वोच्च शिखर पर अयोगी हुए।
नेमीप्रभु के मुक्त होने पर इन्द्रों द्वारा उनका मोक्षकल्याणक महोत्सव मनाया गया। संक्षेप सार यह है कि पहले जो चिन्तागति विद्याधर थे, जिन्होंने प्रीतिमती राजकुमारी की माँग को अस्वीकार किया, तत्पश्चात् चौथे स्वर्ग के देव हुए। पुनः अपराजित राजा हुए। फिर सोलहवें स्वर्ग में गये, वहाँ से चयकर सुप्रतिष्ठित राजा हुए। फिर अहमिन्द्र हुए और अन्त में भरतक्षेत्र के बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ हुए। वे नेमीनाथ हमारे हृदय में सदैव बसे रहें, जिससे प्रेरणा पाकर हम भी शीघ्र ही उन जैसे परमात्मा पद पा सकें।. ॥ २९
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