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| व पर को सुखी करनेवाला है, वही उत्तम है, प्रशंसनीय है। जो तप द्वीपायन की भांति निज व पर को | कष्टदायक है, वह उत्तम नहीं है। | दूसरों का अपकार करनेवाला पापी मनुष्य दूसरों का वध तो एक जन्म में करता है, पर उसके फल में अपना वध जन्म-जन्म में करता है तथा अपना संसार बढ़ाता है। असहनशील व्यक्ति दूसरे का अपकार किसी तरह भी कर सकता है; परन्तु ध्यान रहे, दूसरों को दुःखी करनेवाले को स्वयं को भी दुःख की परम्परा ही प्राप्त होती है।
विधि के वशीभूत हुए क्रोध से अन्धे द्वीपायन मुनि ने जिनेन्द्र के वचनों का उल्लंघन कर बालक, स्त्री, | पशु और वृद्धजनों को जो वस्तुत: दया के पात्र हैं, उन्हें जलाकर अपने ही दुःख को बढ़ा लिया है - ऐसे क्रोध को धिक्कार है।
'संसार में पुण्य-पाप का खेल भी विचित्र है और होनहार बलवान है, उसे कोई टाल नहीं सकता।'
श्रीकृष्ण और बलदेव के जीवन की अनेक घटनायें इस बात की प्रबल प्रमाण हैं। जो बलदेव और | श्रीकृष्ण पहले सूर्योदय के पूर्वार्द्ध की भाँति पुण्योदय से लोकोत्तर उन्नति करते रहे, वे जीवन के अन्तिम क्षणों में बन्धुजनों से भी बिछुड़ गये, शोकाकुल हो गये। __कृष्ण के कहने पर स्नेह से भरे बलदेव ने कहा - "हे भाई! मैं शीतल पानी की व्यवस्था करता हूँ, तुम निराश मत होओ। तबतक तुम जिनेन्द्र के स्मरणरूपी जल से प्यास को दूर करो। भाई! यह पानी तो थोड़े समय के लिए ही प्यास को दूर करता है; पर जिनेन्द्र का स्मरण रूप जल तो तृष्णा के जल को जड़मूल से नष्ट कर देता है।"
बलदेव पानी लेने गये, कृष्ण वृक्ष की छाया में चादर ओढ़कर विश्राम करने लगे। शिकारप्रेमी | जरतकुमार अकेला उस वन में घूम रहा था। होनहार की बात देखो, श्रीकृष्ण के स्नेह से भरा जो उनके || २१
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