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(२७२ | गया और वे मरकर अग्निकुमार नामक मिथ्यादृष्टि भवनवासी देव हुए। उन्होंने विभंगावधिज्ञान से सब जान | लिया और क्रोधावेश में द्वारिका को भस्म करने लगा।
श्रीकृष्ण एवं बलदेव ने माता-पिता और अन्य महत्त्वपूर्ण लोगों को बचाने का प्रयत्न किया तो उस | क्रोधी देव ने सब तरह से आक्रमण करके सबको नष्ट-भ्रष्ट करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी। | 'भवितव्यता दुर्निवार है' अन्यथा जिस द्वारिका नगरी की रचना इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने की हो, कुबेर ही जिसका रक्षक हो, वह नगरी अग्नि के द्वारा कैसे जल जाती? हे बलदेव और कृष्ण ! हम लोग चिरकाल से अग्नि के भय से पीड़ित हो रहे हैं, हमारी रक्षा करो, इसप्रकार स्त्री, बालक और वृद्धजनों के घबराहट से भरे शब्द सर्वत्र व्याप्त हो रहे थे। घबराये हुए बलदेव और श्रीकृष्ण नगर का कोट तोड़ समुद्र के जल से अग्नि को बुझाने लगे तो वह जल तैलरूप में परिणत हो गया। उन दोनों ने जो भी द्वारिका के जन जीवन की रक्षा करने के प्रयत्न किए, सभी असफल रहे। जब अन्त में कृष्ण और बलदेव ने पैर के आघात से नगर के कपाट गिरा दिए तो द्वीपायन के जीव दैत्य ने कहा - "तुम दोनों भाइयों के सिवाय किसी अन्य का निकलना संभव नहीं है।"
यह जानकर दोनों माताओं और वसुदेव (पिता) ने कहा - "हे पुत्रो ! तुम जाओ। तुम दोनों के जीवित | रहने से वंश का विनाश नहीं होगा। माता-पिता को शान्त कर उनकी आज्ञा का पालन कर दोनों भाई श्रीकृष्ण और बलदेव दुःखी मन से निकल कर दक्षिण की ओर चले गये।।
इधर वसुदेव आदि यादव तथा उनकी स्त्रियाँ सन्यास पूर्वक देह त्याग कर स्वर्ग में उत्पन्न हुए। जो चरम शरीरी थे, वे ध्यानस्थ हो गये। अग्नि केवल उनके देह ही जला पायी आत्मा तो रागादि विकार को और कर्मों को जलाकर मुक्त हो गये। जो सम्यग्दर्शन से पवित्र थे, वे मृत्यु के भय से निर्भय हो समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण कर सद्गति को प्राप्त हुए। वे मनुष्य धन्य हैं जो संकट आने पर, अग्नि की शिखाओं के बीच भी ध्यानरूप अग्नि से विकार को जलाकर अपने मनुष्य भव को सार्थक कर लेते हैं। जो तप निज |
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पनिज ॥२१