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मृत संतान हुई...... और न जाने कितने दुःख नारियों के होते हैं। अतः ऐसी दुःखद स्त्री पर्याय में न जाना हो, इस पर्याय से सदा के लिए मुक्त होना हो तो मायाचार, छलकपट का भाव और व्यवहार छोड़े तथा सम्यग्दर्शन की आराधना करें - यही राह राजमती चली।
दीक्षा कल्याणक मनाने के पश्चात् मुनिराज नेमिनाथ व्रत, समिति, गुप्तियों से सुशोभित एवं परिषहों || को जीतते हुए रत्नत्रय और तपरूपलक्ष्मी से मुनिधर्म की साधना करने लगे। आर्त और रौद्र नामक अप्रशस्त | ध्यान को छोड़कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान नामक प्रशस्त ध्यान करने लगे।
भगवान नेमिनाथ ने धर्मध्यान के दस भेदों का यथायोग्य ध्यान करते हुए छद्मस्थ अवस्था के छप्पन दिन समीचीन तपश्चरण के द्वारा व्यतीत किए। तत्पश्चात् अश्विन शुक्ल प्रतिपदा (एकम) के दिन शुक्लध्यान रूप अग्नि द्वारा चार घातिया कर्मों को भस्म कर अनंतचतुष्टयमय केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।
तीर्थंकर नेमिनाथ को केवलज्ञान होते ही इन्द्रों के आसन और मुकुट कम्पायमान हो गये और तीनों लोकों के इन्द्र केवलज्ञान कल्याणक महोत्सव मनाने चल पड़े। गिरनारपर्वत की तीन प्रदक्षिणायें देकर उन्होंने खूब उत्साहपूर्वक नेमि जिनेन्द्र का पूजा महोत्सव मनाया।
जब जिनेन्द्र भगवान नेमिनाथ के समवसरण में सब भव्य जीव धर्म सुनने के लिए हाथ जोड़कर बैठ गये, तब वरदत्त गणधरदेव ने जिनेन्द्रदेव से पूछा - "सबका हित किसमें है ? अपना कल्याण करने के लिए हम क्या करें ?"
उत्तर में तीर्थंकर नेमिनाथ की दिव्यध्वनि खिरने लगी, जो पुरुषार्थ रूप फल को देनेवाली थी और चार अनुयोगों की एक माता थी। चार गतियों का निवारण करनेवाली थी।
यह दिव्यध्वनि जहाँ भगवान विराजमान थे, उसके चारों ओर एक योजन के घेरे में इतनी स्पष्ट सुनाई देती थी मानो भगवान सामने ही बोल रहे हैं।
दिव्यध्वनि में जगत की अनादिनिधन, स्वतंत्र, स्वाधीन, अहेतुक स्थिति का ज्ञान कराया गया है। यह ॥ २१
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