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चिन्ता करता रहा कि मेरा तप करने का बहुत-सा महत्त्वपूर्ण समय यों ही निकल गया । अन्त में प्रींतकर | पुत्र को राज्यभार सौंपकर शरीरादि से निस्पृह हो वह भी मुनि हो गया।
तत्पश्चात् प्रायोपगमन सन्यास से सुशोभित दिन-रात चारों आराधनाओं की आराधना कर वे अच्युत स्वर्ग में बाईस सागर की आयु धारक अपराजित इन्द्र हुए। वहाँ से चयकर नागपुर में राजा श्रीचन्द्र और | श्रीमती के सुप्रतिष्ठित नामक पुत्र हुआ। वह जिनधर्म का उपासक था। राजा श्रीचन्द्र पुत्र सुप्रतिष्ठित को राज्य देकर मुनि होकर मुक्त हो गये। एकबार राजा सुप्रतिष्ठित ने मासोपवासी यशोधर मुनिराज को नवधा भक्तिभाव पूर्वक आहारदान दिया; फलस्वरूप रत्नवृष्टि आदि पंच आश्चर्य हुए। | एक बार राजा सुप्रतिष्ठित कार्तिक की पूर्णिमा की रात्रि में अपनी आठ सौ स्त्रियों के साथ महल की | छत पर बैठा था। उसीसमय आकाश में उल्कापात हुआ। उसे देख वह राज्यलक्ष्मी को उल्का के समान || ही क्षणभंगुर समझने लगा। इसलिए अपनी सुनन्दा रानी के पुत्र सुदृष्टि को राज्यलक्ष्मी देकर उसने सुमन्दिर | नामक गुरु के समीप दीक्षा ले ली।
राजा सुप्रतिष्ठित के साथ सूर्य के समान तेजस्वी चार हजार राजाओं ने भी उग्र तप धारण किया था। मुनिराज सुप्रतिष्ठित ने ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप और वीर्य की वृद्धि से युक्त हो जिनवाणी का गहन अध्ययन किया तथा सर्वतोभद्र से लेकर सिंहनिष्क्रीड़ित पर्यन्त विशिष्ट तप किए और सोलह कारण भावनायें भाकर तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध किया।
इसप्रकार तीर्थंकर प्रकृति का बंध करनेवाले सुप्रतिष्ठित मुनिराज एक मास तक आहार त्यागकर चारों आराधनाओं की साधना करते हुए बाईस सागर की स्थिति पाकर जयन्त स्वर्ग में उत्पन्न हुए। वहाँ से चयकर वे राजा समुद्रविजय की रानी शिवादेवी से हरिवंश रूपी पर्वत के शिखर स्वरूप नेमिनाथ नामक २२ वें तीर्थंकर हुए - जिसका विवरण इसप्रकार है -
यादव कुल में मूलतः हरिवंशीय महाराजा सौरी हुए। उनसे अन्धक वृष्णि और भोग वृष्णि ये दो पुत्र हुए। उनमें राजा अंधकवृष्णि के दस पुत्र थे, जिनमें बाल तीर्थंकर नेमिकुमार के पिता-सौरीपुर के राजा || २९
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