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२६०|| को देखकर स्वाभाविक आनन्द होता ही है; परन्तु आप दोनों के दर्शन कर आज अपूर्व आनन्द हो रहा ||
है तथा स्वाभाविक स्नेह उमड़ रहा है, इसका कारण क्या है ?" || दोनों में बड़े मुनि बोले - “हे राजन् ! पूर्वभव का सम्बन्ध ही स्नेह की अधिकता का कारण होता है। | मैं अपने और तुम्हारे पूर्वभव का सम्बन्ध बताता हूँ। “विदेह क्षेत्र में गण्यपुर नगर के राजा सूर्याभ और उसकी | पत्नी धारणी के तीन पुत्र थे - चिन्तागति, मनोगति और चपलगति । उसीसमय राजा अरिजंय के यहाँ अनेक विद्याओं की धारक और संसार से विरक्त प्रीतिमति नामक कन्या हुई। उसके माता-पिता उसका विवाह करना चाहते थे और वह संसार को असार जानकर इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर तप करके आत्मा के कल्याण में लगाना चाहती थीं। प्रीतिमति ने पिताजी से दीक्षा लेने की अनुमति प्राप्त करने हेतु युक्ति बनाई। उसने कहा - 'जो मुझे तेज दौड़ में हरायेगा, मैं उसी से शादी करूँगी।' उस प्रतियोगिता में चिन्तागति
आदि तीनों भाई सम्मिलित हुए और उससे वे भी पराजित हो गये। इस युक्ति से प्रीतिमति ने अनुमति पाकर | 'निर्वृत्ति' आर्यिका से दीक्षा धारण कर ली। प्रीतिमति के द्वारा तेज दौड़ में पराजित चिन्तागति आदि तीन भाइयों ने भी दमवर मुनिराज के समीप दीक्षा धारण कर ली। आयु के अन्त में तीनों भाई माहेन्द्र स्वर्ग में सात सागर की आयु प्राप्त वाले सामानिक जाति के देव हुए। चिन्तागति का जीव जो माहेन्द्र स्वर्ग में था, वहाँ से चयकर तुम (अपराजित) हुए हो और मनोगति एवं चपलगति के जीव भी माहेन्द्र स्वर्ग से चय कर हम दोनों अमितवेग और अमिततेज हुए हैं। पुण्डरीकणी नगरी में स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के समीप मुनि दीक्षा लेकर उनसे हमने अपने पूर्व भव सुने। उनके बताये अनुसार हे राजन् ! तुम हमारे बड़े भाई चिन्तागति के जीव ही माहेन्द्र स्वर्ग से हमसे पहले ही च्युत होकर यहाँ अपराजित हुए हो। हम दोनों पूर्व भवों के संस्कार वश धर्मानुराग से तुम्हें संबोधने आये हैं। तुम इसी भरत क्षेत्र के हरिवंश नामक महावंश में अरिष्ठनेमि नामक तीर्थंकर होगे। इससमय तुम्हारी आयु एक माह की ही शेष रह गई है ! अत: आत्महित करो।" इतना कह अमितवेग और अमिततेज दोनों मुनि विहार कर गये।
चारण ऋद्धिधारी मुनिराज के वचन सुनकर राजा अपराजित हर्षित होता हुआ भी बहुत समय तक यही २१
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