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वे सम्मेदशिखर पधारे और अनुक्रम से योगनिरोध करके, वैशाख कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के अन्तिम प्रहर में सर्वथा निष्कर्म होकर, सिद्धपुरी में जाकर विराजमान हो गये। देवों और मनुष्यों ने प्रभु की मोक्षप्राप्ति का कल्याणक महोत्सव मनाया। उस अवसर पर शुद्ध आत्मा की अचिन्त्य महिमा का चिन्तन कर-करके अनेक जीव संसार से विरक्त हुए। किन्हीं ने सम्यग्दर्शन प्राप्त किया, कोई मुनि हुए तो कितनों ने केवलज्ञान प्रगट किया और कुछ जीव तो प्रभु के साथ ही मुक्ति को प्राप्त हुए। मोक्ष की साधना का वह महामंगलमहोत्सव था। उस मोक्ष की स्मृति में इन्द्र ने उस मुक्तिस्थान 'मित्रधर' कूट पर प्रभु चरणों की स्थापना करके पूजा की।
यहाँ ध्यान देनेयोग्य बात यह है कि - तीर्थंकर नमिनाथ संयोग से इक्कीसवें तीर्थंकर होते हुए भी अन्य ॥ अनेक तीर्थंकरों की अपेक्षा कम चर्चित रहे हैं। उनकी मूर्तियाँ भी अधिकांश चौबीसियों के समूह में ही मिलेंगी; अलग से नमिनाथ की मूर्तियाँ शायद ही कहीं-कहीं हों। इसका एक ही कारण समझ में आता है कि उनके साथ कोई चमत्कारिक घटना नहीं जुड़ी या उनका जीवन घटना-प्रधान नहीं है; परन्तु ध्यान रहे, पूज्यता में और उनके अनन्त गुणों के सम्पूर्ण विकास में तथा अतीन्द्रिय आनन्द में एवं वीतरागता, सर्वज्ञता आदि सभी बातों में वे चौबीस तीर्थंकरों के समान ही हैं। परन्तु लौकिकजन चमत्कारों और घटनाओं में अधिक रुचि रखते हैं, इसकारण जिन तीर्थंकरों का जीवन घटना प्रधान रहा और जिनके साथ लौकिक चमत्कार की घटनायें जुड़ गईं, वे बहुचर्चित हो गये या हो रहे हैं। जैसे कि - भगवान भरत और भगवान बाहूबली समानरूप से अरहन्त परमात्मा बने तो भी बाहूबली की बेलों और बांवियों ने उन्हें अधिक आकर्षक बना दिया; जबकि वे उनकी विशेषताओं की प्रतीक नहीं; बल्कि भरतजी की अपेक्षा कमजोरी की परिचायक हैं; क्योंकि भगवान बाहुबली को जिस उपयोग को आत्मा में लगाने में इतनी कठिन साधना करनी पड़ी; वही काम भरतजी ने अन्तमुहूर्त में उपसर्ग और परिषह सहे बिना ही कर लिया।
तात्पर्य यह है कि बाहर के चमत्कार या घटनायें छोटे-बड़े की कसौटी नहीं बन सकते।
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