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२५॥ उसीसमय देवों में वैरागी और ब्रह्मचारी लौकान्तिक देव ब्रह्मलोक से मिथिलापुरी में आये और वैरागी
महाराजा को नमस्कार करके स्तुति करने लगे - "हे देव! आपके विचार उत्तम हैं, आपकी वैराग्य भावना का अनुमोदन करने ही हम आये हैं।" इन्द्रादि देव भी पालकी लेकर दीक्षाकल्याणक मनाने आ पहुंचे। आषाढ़ कृष्णा दशमी को नमि महाराजा सिद्ध भगवन्तों को नमन करके स्वयं ही दीक्षित हुए। भगवान के साथ अन्य एक हजार राजाओं ने भी जिनदीक्षा अंगीकार की। उसीसमय आत्मध्यान में एकाग्र होने पर नमि | मुनिराज को मन:पर्ययज्ञान प्रकट हुआ। मुनिराज नमिनाथ को प्रथम पारणा वीरपुरी में दत्तराजा ने कराया।
मुनिदशा में नौ वर्ष तक विचरने के पश्चात् श्री नमि मुनिराज मिथिलापुरी में पधारे। वहाँ अपने दीक्षावन में ही मगसिर शुक्ला एकादशी के दिन उन्हें केवलज्ञान प्रकट हुआ। इन्द्रादि देवों ने आकर समवशरण में | प्रभु के केवलज्ञान का महोत्सव मनाया। देव, मनुष्य और तिर्यंच प्रभु की धर्मसभा में दिव्यध्वनि का लाभ लेने बैठे। प्रभु ने दिव्यध्वनि में शुद्धात्मतत्त्व की अनन्त महिमा बतलायी तथा दिव्यध्वनि में आया - "हे जीवों! आत्मा का शुद्धतारूप परिणमन ही मोक्ष है, वह महान आनन्दरूप है। वह आत्मा से भिन्न नहीं है
और किसी वस्तु का उसमें अवलम्बन नहीं है। मोक्ष का उपाय भी आत्मा के शुद्धपरिणमनरूप ही है; उसमें | भी किसी दूसरे का अवलम्बन नहीं है।"
ऐसे स्वावलम्बी मोक्षमार्ग को जानकर अनेक जीवों ने आत्मा के आश्रय से शुद्धपरिणमन किया और मोक्ष की साधना की।
इक्कीसवें तीर्थंकर प्रभु की धर्मसभा में सुप्रभदेव आदि सत्रह गणधरों सहित कुल २० हजार मुनिवर विराजते थे। ४५ हजार आर्यिकायें थीं। १ लाख धर्मात्मा श्रावक तथा ३ लाख श्राविकायें थीं। १ हजार ६०० तो सर्वज्ञ-केवली भगवन्त विराज रहे थे। वे ढाई हजार वर्ष तक इस भरतक्षेत्र में विचरे और वीतरागी धर्मोपदेश द्वारा लाखों जीवों का कल्याण किया।
इसप्रकार धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते-करते प्रभु नमिनाथ की आयु जब मात्र एक मास शेष रही, तब || २०
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