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| उनकी पवित्र कुक्षि में अवतरित हुआ । गर्भस्थ पुत्र अवधिज्ञानी था और पिता विजयराजा भी अवधिज्ञानी || थे। उन्होंने अवधिज्ञान द्वारा जानकर कहा कि "हे देवी! तुम्हारी कुक्षि में आज रात्रि में तीर्थंकर का जीव
आया है; अत: तुम जगतपूज्य तीर्थंकर की माता बन गई हो।" यह जानकर महादेवी के हर्ष की सीमा नहीं रही। ठीक उसीसमय स्वर्ग के देवविमानों में से देव और इन्द्र जय-जयकार करते हुए मिथिलापुरी में | उतरने लगे। क्षायिक सम्यक्त्व तथा तीर्थंकर प्रकृति सहित वे महात्मा अभी तो माता के गर्भ में आये ही हैं कि स्वर्ग के इन्द्र तथा देव उनके माता-पिता का सम्मान करते हुए मिथिलापुरी में आ पहुँचे और तीर्थंकर के गर्भावतरण के उपलक्ष्य में गर्भकल्याणक का भव्य महोत्सव किया। | स्वर्गलोक की देवियाँ आनन्दपूर्वक माता की तथा गर्भस्थ पुत्र की सेवा करती थीं। गर्भवास के सवा नौ महीने बीतने पर अषाढ़ कृष्णा दशमी के शुभ दिन वप्पिला देवी ने जगतपूज्य पुत्र को जन्म दिया। उस मंगल आत्मा के प्रभाव से जगत में सर्वत्र आनन्द छा गया। स्वर्गलोक के मंगलवाद्य अपने आप बजने लगे, इन्द्र का आसन डोल उठा; सौधर्म इन्द्र एवं शची इन्द्राणी देवों की सेना के दिव्य ठाठ-बाट सहित बाल-तीर्थंकर का जन्माभिषेक करने मिथिलापुरी आ पहुँचे। उन बाल-तीर्थंकर को अपनी गोद में लेते हुए | इन्द्राणी को जो परम हर्ष हुआ। वो शब्दों से नहीं कहा जा सकता; सम्यक्त्व से होनेवाले आनन्द का वेदन क्या वचनों से कहा जा सकता है ? इन्द्राणी ने उन बालप्रभु को जब इन्द्र के हाथ में दिया तब इन्द्र भी आश्चर्यमुग्ध होकर हजार नेत्र बनाकर प्रभु का रूप देखता रह गया। भक्ति के जोर से वह नाच उठा। वह एक साथ हजार हाथों को उछालता और उसके हाथों की प्रत्येक अंगुली पर अप्सरा, देवियाँ उसी जैसी चेष्टा कर-करके नृत्य करती थीं। मेरु पर जन्माभिषेक करके इन्द्र ने उन बालप्रभु की स्तुति की और नाम रखा - नमिकुमार।
मुनिसुव्रत तीर्थंकर के तीर्थं से छह लाख वर्ष बीतने पर तीर्थंकर नमिनाथ का अवतार हुआ था। उनकी आयु नब्बे हजार वर्ष और शरीर की ऊँचाई पन्द्रह हजार धनुष थी। उनके चरण में कमल का चिह्न था।
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