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मुनिराज के श्रीमुख से ऐसी उत्तम बात सुनकर सबके हर्ष का पार नहीं रहा, तुरन्त ही सिद्धार्थकुमार के अन्तर में चेतना उल्लसित हुई, आनन्द से रोमांचित होकर उन्होंने सम्यग्दर्शन प्रकट किया और साथ ही श्रावक | के अणुव्रत ग्रहण कर लिये । महाराजा पार्थिव का चित्त भी संसार से विरक्त हो गया था; उन्होंने पुत्र सिद्धार्थकुमार को कौशाम्बी का राज्य सौंपकर जिनदीक्षा अंगीकार कर ली और रत्नत्रय की उत्कृष्ट आराधना द्वारा केवलज्ञान प्रकट करके मोक्षपद प्राप्त किया ।
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कुछ ही वर्ष बाद राजा सिद्धार्थ का चित्त भी संसार से उदास हो गया, उसीसमय कौशाम्बी नगरी में | महाबल नामक केवली भगवान का आगमन हुआ। उनके चरणों में नमस्कार करके सिद्धार्थ राजा ने दीक्षा धारण की। उन्हीं प्रभु के चरणों में रहकर क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया और दर्शनविशुद्धि आदि सोलह | कारण भावनायें भाकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया। वे एकावतारी महात्मा चारित्र द्वारा शोभायमान हो उठे और उत्तम आराधनासहित समाधिमरण करके अपराजित विमान में अहमिन्द्र हुए ।
भरत क्षेत्र के भावी तीर्थंकर नमिनाथ जब अपराजित स्वर्ग में विराज रहे थे, तब विदेहक्षेत्र के 'अपराजित' नामक भावी तीर्थंकर भी उसी स्वर्ग में विराजते थे । असंख्यात वर्षों तक वे दोनों भावी तीर्थंकर अपराजित | नामक स्वर्ग में साथ रहे, आत्मसाधना संबंधी तत्त्वचर्चा की, घोंट घोंटकर स्वानुभवरस का पान किया । | तैंतीस सागर पश्चात् उन दोनों में से एक अहमिन्द्र तो विदेहक्षेत्र की सुसीमानगरी में अपराजित तीर्थंकर रूप में अवतरित हुए और कुछ वर्ष पश्चात् दूसरे अहमिन्द्र ने इस भरतक्षेत्र में नमिनाथ तीर्थंकर के रूप में अवतार लिया था ।
उस अपराजित विमान में नमिनाथ के पूर्व भव के जीव अहमिन्द्र की आयु जब छह माह शेष रही तब मिथिलापुरी के राजभवन के प्रांगण में दिव्यरत्नों की वर्षा होने लगी। उससमय बंगदेश की मिथिलानगरी में ऋषभदेव के वंशज श्री विजय महाराजा राज्य करते थे । उनकी महारानी वप्पिलादेवी ने आश्विन कृष्णा | द्वितीया की रात्रि में सोलह मंगलस्वप्न देखे और उसीसमय अपराजित विमान से भगवान नमिनाथ का जीव
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