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हे नमि! तेरी अर्चन-पूजन, पापों से हमें बचाती है। समयसार की सात्त्विव चर्चा, शिव सन्मार्ग दिखाती है।। जिनवर! तेरी दिव्यध्वनि मम, मोह तिमिर हर लेती है।
भवभ्रमण का अन्त करा कर, मोक्ष सुलभ कर देती है। भगवान नमिनाथ के पूर्वभवों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि वे पूर्वभव में भी भरतक्षेत्र में कौशाम्बी नगरी के ही राजा थे। इनकी पूर्व पीढ़ी में यहाँ राजा पार्थिव राज्य करते थे, उनके सिद्धार्थ नाम का पुत्र महाप्रतापी एवं भावी तीर्थंकर (नमिनाथ) का ही जीव था।
एकबार अवधिज्ञानी मुनिराज उस कौशाम्बी नगरी में पधारे। महाराजा पार्थिव तथा राजकुमार सिद्धार्थ उन मुनिराज के दर्शन करने गये और धर्मोपदेश श्रवण किया। श्री मुनिराज ने वैराग्य उत्पादक उपदेश देते हुए कहा कि - "यह जीव स्वभाव से स्वयं सुख का निधान है, परिपूर्ण आनन्दघन आत्मा है, चैतन्यसम्राट है; तथापि निजनिधि को भूलकर, रत्नत्रयरूपी वैभव से रहित, विषयों का भिखारी होकर चारों गति में सुख की भीख माँगता हुआ भटक रहा है; परन्तु बाह्य में उसे कहीं सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। यदि यह जाने और सुख के सागर भगवान आत्मा को अन्तर्मुख दृष्टि से देखे तो स्वाधीन सुख का अनुभव हो। राजन्! तुम चरमशरीरी हो और तुम्हारा यह पुत्र सिद्धार्थ भी तीसरे भव में तीर्थंकर होकर सिद्धपद प्राप्त करेगा। इस संसार का मोह छोड़कर अपने को रत्नत्रयधर्म की आराधना में लगाओ और हे सिद्धार्थकुमार! इस संसार में तुम्हारे दो ही भव शेष हैं; तुम भी आत्मा के चैतन्यनिधान को पहिचान कर सम्यग्दर्शन प्रगट करो।"