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प्राणी को मुक्ति अच्छी लगती है, बन्धन अच्छा नहीं लगता और हम राजकाज के राग के बन्धन में बद्ध हैं, धिक्कार है ऐसे पराधीन जीवन को। ऐसे विचार से मुनिसुव्रतनाथ को वैराग्य तो हुआ ही, उन्हें जातिस्मरण ज्ञान भी हो गया, जिससे उन्हें अपने पूर्वभवों का ज्ञान होते ही वैराग्य रस और अधिक बढ़ गया। वे जिन दीक्षा लेने को तैयार हो गये। | तीर्थंकर प्रभु की दीक्षा का मंगलमय अवसर जानकर पंचम स्वर्ग से लौकान्तिक देव राजगृही के राजभवन में आये और प्रभु के वैराग्य की प्रशंसा एवं अनुमोदना की। अचानक हुए इस परिवर्तन से राजगृही में सर्वत्र वैराग्य का वातावरण हो गया। इन्द्रासन डोल उठा। देवगण अपराजित शिविका लेकर दीक्षा | कल्याणक मनाने हेतु पहुँचे । मुनिसुव्रत ने राजगृही में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की। उनको प्रथम आहार दान देकर राजगृही के राजा वृषभसेन धन्य हुए।
मुनिसुव्रतनाथ एक वर्ष तक मुनिदशा में रहे। वैशाख कृष्णा नवमी के दिन पुनः राजगृही पधारे और वहाँ दीक्षावन में अपने चैतन्य स्वरूप में उपयोग को एकाग्र करके परमानन्द में मग्न हो गये; क्षणभर में क्षपकश्रेणी द्वारा मोह का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया। अरहन्त परमात्मा बने और समवशरण में बारह सभाओं के बीच दिव्यध्वनि द्वारा मोक्षमार्गरूप रत्नत्रय तीर्थं का उपदेश देकर तीर्थंकर हुए। प्रभु के उपदेश से अनेक भव्यजीव मोक्षपथ के पथिक बने । इन्द्र भी प्रभु की पूजा करने तथा दिव्यध्वनि का श्रवण करने राजगृही में उतरे । मल्लिदेव आदि अठारह गणधर तथा उनसे सौ गुने अर्थात् १८०० केवली भगवन्त विराजते थे। अनेक ऋद्धिधारी मुनिवरों सहित कुल ३०,००० मुनिराज तथा ५०,००० आर्यिकायें थीं। आत्मज्ञान सहित एक लाख अणुव्रतधारी श्रावक और तीन लाख श्राविकायें धर्माराधना करती थीं। देवों और तिर्यंचों का तो कोई पार ही नहीं था।
प्रभु ने साढ़े सात हजार वर्ष तक तीर्थंकररूप से विचरण करके भरतक्षेत्र के भव्यजीवों को धर्मामृत का पान कराया और भवदुःख से छुड़ाया। जब प्रभु की आयु एक मास शेष रही, तब वे सम्मेदशिखर सिद्धधाम की 'निर्जरकूट' पर आकर स्थिर हुए। फाल्गुन कृष्णा द्वादशी के दिन प्रभु ने मोक्ष प्राप्त किया । इन्द्रों ने उस | मोक्ष प्राप्त सिद्धप्रभु की पूजा करके मोक्ष का महोत्सव मनाया।
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