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२५०| तीनों लोक के लिए मंगलस्वरूप है। इसप्रकार स्तुति द्वारा इन्द्र ने प्रभु के केवलज्ञान-कल्याणक का मंगल | महोत्सव किया।
अपने राजकुमार को मात्र छह दिन में ही परमात्मा के रूप में देखकर मिथिलापुर के प्रजाजनों को अपूर्व आनन्द हो रहा था। इन उन्नीसवें तीर्थंकर के चार कल्याणक अपनी नगरी में मनाये गये और अभी इक्कीसवें तीर्थंकर के भी चार कल्याणक अपनी नगरी में मनाये जायेंगे। प्रभु मल्लिनाथ को केवलज्ञान होने की बात सुनते ही पिताश्री कुंभ महाराजा और माता श्री प्रजावती आश्चर्य मुग्ध होकर तत्काल समवशरण में आ पहुँचे और अपने पुत्र को परमात्मा के रूप में देखकर कल्पनातीत हर्षानन्द को प्राप्त हुए।
क्षणभर शुद्धोपयोगी होकर विशुद्ध परिणाम की वृद्धि द्वारा चारित्रदशा ग्रहण करके उन्होंने अपना आत्मकल्याण किया। पिता कुम्भराजा तो उसी भव में मोक्ष को प्राप्त हुए और माता प्रजावती एकावतारी होकर स्वर्ग सिधारी।
प्रभु श्री मल्लिनाथ देव ने ५४ हजार नौ सौ वर्ष तक वीतराग मार्ग का उपदेश देकर भव्यजीवों का कल्याण किया। अंत में जब एक मास आयु शेष रही, तब प्रभु सम्मेदशिखर पर आकर स्थिर हुए और काय-वचन-मन का निरोध करके सिद्धपद में जाने की तैयारी की। फाल्गुन शुक्ला पंचमी के दिन क्षणभर में चौदहवें गुणस्थान को पार करके, दूसरे ही क्षण वे प्रभुजी संसार से सर्वथा मुक्त होकर संबल कूट से समश्रेणी में सिद्धालय में विराजमान हो गये। देवों ने पंचम कल्याणक का महोत्सव किया; मोक्ष के बाजे बजाये और प्रभु की पूजा की।
पहले जो विदेहक्षेत्र में वैश्रवण राजा थे; वहाँ रत्नत्रयधर्म की महापूजा तथा उपासना करके जिन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया, पश्चात् जो अपराजित विमान में अहमिन्द्र हुए और अन्त में कुंभराजा के पुत्र रूप में अवतरित होकर, विवाह के समय ही वैराग्य प्राप्त करके, केवलज्ञान प्रकट कर भरतक्षेत्र के १९ वें तीर्थंकर हुए। वे १९वें तीर्थंकर मल्लिनाथ भगवान हमारे मंगलमय में निमित्त बनें।
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