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२४९ || घातिकर्मों के ईंधन को इतनी शीघ्रता से दहन कर दिया कि छह दिन में ही केवलज्ञान प्रकट करके परमात्मा बन गये । सर्व तीर्थंकरों में छद्मस्थरूप से रहने का न्यूनतम काल मल्लिनाथ मुनिराज का था । मुनि होने के पश्चात् भगवान आदिनाथ ने छद्मस्थादशा में एक हजार वर्ष तक केवलज्ञान प्राप्ति हेतु तपस्या की थी, जबकि भगवान मल्लिनाथ ने मात्र छह दिन तक तपस्या करके केवलज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने मिथिलापुरी के जिस श्वेत वन में दीक्षा ली थी, उसी वन में केवलज्ञान हुआ । इसप्रकार मिथिलापुरी मल्लिनाथ प्रभु के | चार कल्याणकों से पावन हुई। मात्र सौ वर्ष में मिथिलापुरी की प्रजा ने तीर्थंकर प्रभु के चार कल्याणक अपने गृह-आंगन में प्रत्यक्ष देखे ।
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पौष कृष्णा द्वितीय को उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ मुनिराज को केवलज्ञान होते ही इन्द्रलोक में पुन: | आनन्द की लहर दौड़ गई। देवगण भक्तिपूर्वक तुरन्त पृथ्वी पर उतर आये । क्षणभर में समवशरण की भव्य रचना की और सर्वज्ञ परमात्मा की पूजा करके केवलज्ञान का महोत्सव मनाया। उस समवशरण की अद्भुत शोभा का वर्णन शब्दों द्वारा नहीं हो सकता, प्रत्यक्ष देखने से ही उसकी दिव्यता ज्ञात होती है। अहा! जिसके | बीचों-बीच परमात्मा स्वयं विराजते हों, उस स्थान की शोभा जगत में सर्वोत्कृष्ट हो उसमें आश्चर्य ही ती क्या? अरे, एक छोटे-से साधक के हृदय में जहाँ परमात्मा विराजते हों, उसकी शोभा भी क्या तीन लोक के वैभव से श्रेष्ठ नहीं हो जाती ? उस समवशरण में मात्र एक (तीर्थंकर) परमात्मा ही नहीं; अपितु दूसरे | दो हजार दो सौ सर्वज्ञ परमात्मा भी एक साथ विराजते थे ।
प्रभु मल्लिनाथ के समवसरण में दो हजार दो सौ केवली परमात्मा गगन में विराजते थे, तदुपरान्त विशाखसेन आदि अट्ठाईस गणधर थे; चवालीस हजार मुनिवर एवं बंधुषेणा आदि पचपन हजार आर्यिकायें थीं; एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकायें आत्मचिन्तन करती थीं । तिर्यंचों की संख्या का तो कोई | पार नहीं था । सब जिनभक्ति में तत्पर थे और वीतराग के वचनामृत द्वारा शांतरस का पान करते थे । सर्वज्ञ परमात्मा मल्लिनाथ के केवलज्ञान की पूजा करके इन्द्र ने स्तुति की । प्रभो! आपका केवलज्ञान
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