SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ EFFFFFy | और दायित्वों के प्रति पूर्ण सजग एवं सावधान थे। एक दिन महाराजा वर्षा के मौसम में वन के सौन्दर्य का आनन्द लेने के लिए वन में गए, वहाँ उन्होंने देखा कि एक विशाल वृक्ष अपनी बड़ी-बड़ी शाखाओं | से वन के पशु-पक्षियों का आश्रयदाता बना हुआ वर्षों से वन की शोभा बढ़ा रहा था। महाराजा उसकी छाया और पशु-पक्षियों के पड़ाव को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। राजा वनविहार करते हुए जब उसी मार्ग से वापिस लौटे तो वहाँ उस विशाल वटवृक्ष को पृथ्वी पर ध्वस्त पड़ा देखकर आश्चर्यचकित हो गए। पास में आकर देखने पर ज्ञात हुआ कि वह वृक्ष, उल्कापात होने से ध्वस्त हो गया है। जलकर खाक हो गया है। बस, वर्षों से खड़े बृहत् वट वृक्ष की क्षणभर में हुई विध्वंस की घटना को देखकर राजा वैश्रवण को अपनी पर्याय की क्षणभंगुरता का आभास होने से वैराग्य हो गया। उन्हें विचार आया कि “जब इस बद्धमूल विस्तृत और सुदृढ़ वटवृक्ष की ऐसी दशा हो गई, तब कमजोरों का तो कहना ही क्या ? सचमुच सारा संसार अनित्य है, अशरण है। इस संसार में कहीं भी सुख-शान्ति नहीं है।" ऐसा विचार कर वैश्रवण महाराजा ने अपने पुत्र को राज्यसत्ता सौंपकर श्रीनाग नामक मुनिराज के पास जिनदीक्षा धारण कर ली। ____ दो दिन के उपवास के पश्चात् उन तीर्थंकर मुनिराज को मिथिलापुरी में नंदिष्णराजा ने नवधा भक्तिपूर्वक आहारदान देकर पारणा कराया। तीर्थंकर मुनिराज जैसे सर्वोत्तम सुपात्र को आहारदान का प्रसंग होने से देवों ने भी आनन्दित होकर जय-जयकार करते हुए आकाश से पुष्पों तथा रत्नों की वर्षा की। मोक्षगामी मुनि के कर-भाजन में आहार देनेवाले वे महात्मा स्वयं भी मोक्ष के भाजन बन गये; क्योंकि ऐसा नियम है कि तीर्थंकर को मुनिदशा में प्रथम पारणा करानेवाला जीव उसी भव में अथवा तीसरे भव में मोक्ष प्राप्त करता है। प्रभु मल्लिनाथ की आत्मसाधना आश्चर्यजनक थी। मोह राजा के सेनापति ऐसे दुष्ट कामरूपी महाशत्रु को तो उन्होंने पहले ही घात कर दिया था, इसलिए शेष मोह को जीतने में उन्हें अधिक देर नहीं लगी। पर्व मुनिदशा में छद्मस्थरूप से वे मात्र छह दिन ही रहे शुद्धात्मा के ध्यान की प्रचण्ड अग्नि प्रज्वलित करके उसमें | १८ ना
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy