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एक लाख साठ हजार श्रावक तथा तीन लाख श्राविकायें थीं । असंख्यात देव और संख्यात तिर्यंच भी थे।
इसप्रकार इन बारह सभाओं से घिरे हुए तीर्थंकर भगवान अरनाथ ने धर्मोपदेश देने के लिए अपने समवशरण के साथ अनेक देशों में विहार किया । विहारकाल में भव्य श्रोता के मन में प्रश्न उठे, उनके समाधान दिव्यध्वनि में आये, जो इसप्रकार थे।
• प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है। कोई किसी के आधीन नहीं है ।
• सब आत्माएँ समान हैं । कोई छोटा-बड़ा नहीं ।
प्रत्येक आत्मा अनन्तज्ञान और सुखमय है। सुख कहीं बाहर से नहीं आना है।
• आत्मा ही नहीं, प्रत्येक पदार्थ स्वयं परिणमनशील है। उनके परिणमन में पर-पदार्थ का कोई हस्तक्षेप नहीं है।
• सब जीव अपनी भूल से ही दुःखी हैं और स्वयं अपनी भूल सुधारकर सुखी हो सकते हैं। अपने को नहीं पहचाना ही सबसे बड़ी भूल है तथा अपना सही स्वरूप समझना ही अपनी भूल सुधारना है । • भगवान कोई अलग नहीं होते। सही दिशा में पुरुषार्थ करने से प्रत्येक जीव भगवान बन सकता है। • स्वयं को जानो, स्वयं को पहचानो और स्वयं में समा जावो; भगवान बन जावोगे ।
• भगवान जगत का कर्ता हर्ता नहीं, वह तो समस्त जगत का मात्र ज्ञाता - दृष्टा होता है।
• जो समस्त जगत को जानकर उससे पूर्ण अलिप्त वीतराग रह सके अथवा पूर्ण रूप से अप्रभावित रहकर जान सके, वही भगवान है ।
जब उनकी आयु एक माह की बाकी रही तब उन्होंने सम्मेदाचल की शिखर पर एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण कर लिया तथा चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन मोक्ष प्राप्त किया, उसीसमय इन्द्रों के निर्वाणकल्याणक महोत्सव के साथ निर्वाण कल्याणक की पूजा की तदुपरान्त सब इन्द्र यथास्थान चले गये ।
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