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________________ २४२ श Em E 45 ला का पु रु ष उ त्त रा र्द्ध श्रोता के मन में प्रश्न उठा प्रभो! वैयावृत्त तप का क्या स्वरूप है ? इस तप के संबंध में बहुत-सी भ्रान्तियाँ हैं, कृपया स्पष्ट करें ? दिव्यध्वनि में समाधान आया - हे भव्य ! वैयावृत्त तप के संबंध में विचारणीय बात यह है कि जब यह अंतरंग तप है तो इसका सीधा संबंध आत्मा के परिणामों से होना चाहिए; शारीरिक सेवा से नहीं । हाँ वेदना आदि के कारण जब साधु या श्रावक विचलित होता है, तब साधर्मी उसके परिणामों के | स्थितिकरण के लिए शारीरिक अनुकूलता भी पद के अनुसार निर्दोष विधि से करते हैं । तप का वस्तुत: तो आत्मा के परिणामों से ही संबंध है। स्वस्थ अवस्था में शरीर की सेवा मालिश और पग चप्पी करना / कराना वैयावृत्त तप नहीं है । वैयावृत्त के बाह्य मूल स्वरूप में होता यह है कि जब-जब भी साधुओं को शारीरिक कष्ट हो, सेवा कराने का विकल्प मन में आये, औषधि प्राप्त करने का भाव मन में आये तो तुरन्त तत्त्वज्ञान के बल से वे उस उपसर्ग या परिषह को जीतें । सेवा कराने का मन में सदैव निषेध वर्ते तो उस | इच्छा निरोध का भाव वैयावृत्त तप संज्ञा को प्राप्त होता है; अन्यथा तप तो है ही नहीं; पुण्य भी नहीं है । हाँ, श्रावकजन साधुओं के प्राकृतिक / अप्राकृतिक परिषह उपसर्ग या रोगादिजनित पीड़ा को देखकर पद के योग्य परिचर्या करते हैं तो उन्हें पुण्यबंध होगा; क्योंकि वह साधु-समाधि भावना है, वैयावृत्य भावना है। तप में तो इच्छाओं का निरोध अनिवार्य है और तप साधु का मूल गुण है। उससे श्रावक का क्या संबंध ? भगवान दिव्यध्वनि के द्वारा सबको धर्मोपदेश देते हुए विहार करते थे। जब उनकी आयु एक मास की रही, तब वे सम्मेदशिखर पहुँचे। वहाँ एक हजार मुनियों के साथ उन्होंने प्रतिमायोग धारण किया। अब वे कर्म कलंक से रहित निरंजन हो गये। देवों ने उनके निर्वाण कल्याणक की पूजा की। उनका वह परम पद अत्यन्त शुद्ध सुखदायक अविनाशी है । वे हम सब पाठकों के लिए प्रेरणा के स्रोत और मंगलमय बनें। | यही शुभभावना है। • ती र्थं क ना थ पर्व १६
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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