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________________ || (बिजली) मानो मेरे मोह रूप शत्रु को नष्ट करने के लिए उसके ऊपर ही पड़ी है। उसने उसी समय यति | वृषभ नामक मुनि के समीप जाकर एवं उनको साष्टांग नमस्कार कर उनके द्वारा कहे धर्मतत्व को विस्तार | से रुचिपूर्वक सुनकर विचार करने लगा कि 'मैं अबतक मोह राजा के बन्धन में पड़ा हुआ था। इस उल्का | ने ही मुझे जागृत किया है, सजग एवं सावधान किया है। अब मुझे अपने जीवन को इस क्षणभर में तड़क कर नष्ट हो जानेवाली उल्का की तरह क्षणिक समझ कर शीघ्र ही जिनदीक्षा लेकर अपना कल्याण कर लेना चाहिए। यह सोचकर उसने अपना राज्यभार अपने पुत्र को सौंपकर बहुत से राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया । संयमी होकर उसने ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त किया तथा सोलह कारण भावनाओं के द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया। आयु के अन्त में समाधिमरण कर वह सर्वार्थसिद्धि के अन्तिम अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुआ। वहाँ के लौकिक सुखों में सर्वश्रेष्ठ सुखों का उपभोग कर आयु पूर्णकर इसी भरत क्षेत्र सम्बन्धी कुरुक्षेत्र के हस्तिनापुर राज्य में महाराजा सूरसेन पिता के घर में एवं महारानी श्रीकान्ता के उदर से कुन्थुनाथ के रूप में अवतरित हुआ। कुन्थुनाथ के गर्भ एवं जन्म की सम्पूर्ण पूर्वोत्तर क्रियायें सभी तीर्थंकरों के गर्भ एवं जन्म के समान इन्द्रों और देवों द्वारा हर्षोल्लास और महा-महोत्सवों के साथ हुईं। जैसे कि - जन्म से १५ माह पूर्व से कुबेर द्वारा रत्नों की वृष्टि, देवियों द्वारा माता की सेवा, सोलह स्वप्न आदि तथा तीर्थंकर के जन्मोत्सव, जन्माभिषेक आदि सब सम्पूर्ण क्रियायें ठाट-बाट और उत्साह पूर्वक सम्पन्न हुईं। श्री शान्तिनाथ तीर्थंकर के मोक्ष जाने के बाद जब आधापल्य बीत गया, तब सातिशय पुण्य के धनी श्री कुन्थुनाथ भगवान उत्पन्न हुए थे। उनकी आयु ९५ हजार वर्ष की थी। पैंतीस धनुष ऊँचा शरीर था और तपाये हुए स्वर्ण के समान कान्ति थी। तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष कुमार काल के बीत जाने पर उन्हें राज्य प्राप्त हुआ था। और इतना ही समय बीतने पर उन्हें अपनी जन्मतिथि के दिन ही चक्रवर्तित्व की लक्ष्मी मिली। | १६ 4 NF,
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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