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________________ REFEF FF is देवेन्द्रचक्र से चयकर प्रभु ने, पुनर्जन्म का अन्त किया। राजेन्द्रचक्र को त्याग कुन्थु ने, मुक्तिमार्ग स्वीकार किया। धर्मेन्द्रचक्र को धारण कर, जिनशासन का विस्तार किया। सिद्धचक्र में शामिल होकर, निजानन्द रसपान किया। जो तीसरे पूर्वभव में राजा सिंहस्थ थे, उन्होंने उसी राजा सिंहरथ के भव में मुनिमार्ग में सिंहवृत्ति के साथ आत्मानुभूतिपूर्वक अंतरंग-बहिरंग तपश्चरण से दूसरे पूर्वभव में सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया। तत्पश्चात् तद्भव भव में तीर्थंकर और चक्रवर्ती - दो पदों को प्राप्त हुए। तीर्थंकरत्व के कारण वे त्रिलोक पूज्य हुए। वे सत्रहवें तीर्थंकर भगवान कुन्थुनाथ हम सबके कल्याण में निमित्त बनें। ___कुन्थुनाथ अपने राजा सिंहस्थ के भव में जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सुसीमा नगर के राजा थे। वह राजा सिंहरथ सिंह के समान ही पराक्रमी था, उसके पराक्रम के यश से ही अधिकांश प्रतिद्वन्दी युद्ध में उसका सामना नहीं करते थे। युद्ध किए बिना ही उसकी आधीनता स्वीकार कर लेते थे। बिना कारण कुन्थु जैसे सूक्ष्म जीवों को भी बाधा नहीं पहुँचाने वाला वह राजा शत्रु पक्ष से विजय प्राप्त करने में कभी पीठ नहीं दिखाता था। सदैव सामना करने को तैयार रहता था। न्यायपूर्ण व्यवहार और अहिंसक आचरण वाले और कर्मवीर राजा के सामने पापरूप शत्रु भी भयाक्रान्त होकर उसके पास ही नहीं पहुँचते थे। वह राजा एक बार आकाश में उल्कापात (तड़ित विद्युत) देखकर, विचार करने लगा कि यह उल्का १६
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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