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प्रातः अपने पति से उन शुभ स्वप्नों के फल को सुनकर रानी सुषेणा आनन्दित हुई। उसी दिन | | वह अहमिन्द्र रानी सुषेणा के गर्भ में अवतरित हुआ। तत्पश्चात् नवमें महीने में कार्तिक शुक्ला पूर्णमासी के दिन तीर्थंकर संभवनाथ स्वामी के रूप में पुत्ररत्न को जन्म दिया। पूर्व तीर्थंकरों की भांति ही जन्मकल्याणक महोत्सव सम्बन्धी समस्त क्रियायें हो जाने के बाद उनका विधिवत् संभवनाथ नामकरण संस्कार किया गया।
इन्द्रों ने उन संभवनाथ तीर्थंकर देव की स्तुति करते हुए कहा - "हे संभवनाथ ! आपकी तीर्थंकर प्रकृति | का उदय तो तेरहवें गुणस्थान में सर्वज्ञता और वीतरागता प्रगट होने पर होगा; परन्तु उसके सत्ता में रहते हुए भी उसके प्रभाव से आज जगत के जीवों को सुख प्राप्त हो रहा है। आपके उदय से असंभव प्रतीत होनेवाले काम भी संभव होते दिखाई दे रहे हैं। इसीकारण आपका संभवनाथ नाम सार्थक है। निरन्तर दुःख के वातावरण में रहनेवाले नारकियों ने भी क्षणभर सुख का अनुभव किया। जो कि असंभव था। इसकारण भी आपका संभवनाथ नाम सार्थक है। ___ “हे देव ! जिसप्रकार स्याद्वाद और अनेकान्त सिद्धान्त का निर्मल तेज रागी-द्वेषी मिथ्यामतों का निराकरण करता हुआ शोभायमान होता है, उसीप्रकार आपका निर्मल तेज भी अन्य साधारण जनों के तेज को फीका करता हुआ सुशोभित होता है। जिसप्रकार सब जीवों को आह्लादित करनेवाली सुगन्ध से चन्दन जगत को लाभान्वित करता है, उसीप्रकार आप भी जन्म से ही प्राप्त मति-श्रुत-अवधि - तीन ज्ञानों से जगत का कल्याण करते हैं।
हे नाथ ! आपके प्रति सहज समर्पित और स्नेहरूप भक्ति से मेरा यह लघु ज्ञान का दीपक आपके ज्ञानसूर्य के समान दैदीप्यमान ज्ञान के प्रकाश से अकारण ही लाभान्वित होता है।"
इसप्रकार स्तुति कर जिसने आनन्द नाम का नाटक किया है - ऐसा प्रथम स्वर्ग का अधिपति सौधर्मेन्द्र माता-पिता के लिए बाल तीर्थंकर को सौंपकर देवों के साथ स्वर्ग चला गया।