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________________ (२३ | यह सुखी होने की आशा दुराशा मात्र है। निर्जल नदी और छाया एवं फल रहित वृक्ष अभिलाषा से जलते || हुए प्राणियों को शीतलता कहाँ से प्रदान करेंगे।" | इसतरह विचार करते हुए विमलवाहन राजा ने अपना राज्य विमलकीर्ति नामक पुत्र को देकर स्वयंप्रभ जिनेन्द्र की शिष्यता स्वीकार कर ली, उनके पास जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली। कुछ ही समय में ग्यारह अंगों | का ज्ञाता होकर उसने सोलहकारण भावनाओं द्वारा तीनों लोकों में अपना प्रभाव फैलानेवाला तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। अन्त में संन्यास की विधि देह त्यागकर प्रथम ग्रैवेयक के सुदर्शन विमान में बड़ी-बड़ी ऋद्धि का धारक अहमिन्द्र हुआ। उसकी तेईस सागर की आयु थी। साठ अंगुल ऊँचा शरीर था, शुक्ल लेश्या थी साढ़े ग्यारह माह में एकबार श्वांस लेता था। तेईस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार लेता था, आहार की इच्छा होते ही कंठ से अमृत झर जाता था। जबान जूठी न होने पर भी भूख की सम्पूर्णतया संतुष्टि हो जाती थी। उसके भोग प्रविचार से रहित होते हुए प्रविचार के सुख से अनन्तगुणें सुखद थे। सातवें नरक तक जानने की उनके अवधिज्ञान की सीमा थी। वहाँ तक जाने की उसकी शक्ति भी थी। उतनी ही दूर तक फैले - ऐसी उसके शरीर की प्रभा थी। इसप्रकार वह अहमिन्द्र अणिमा, महिमा आदि गुणों से सहित तथा पुण्योदय से प्राप्त अहमिन्द्र के सुखों को भोगता था। जब इस अहमिन्द्र की आयु के मात्र छह मास शेष रह गये और संभवनाथ तीर्थंकर के रूप में अवतरित होने की काललब्धि आनेवाली थी तो इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्रान्तर्गत श्री वास्ती नगरी में राजा दृढ़राज्य के घर सुषेणा के गर्भ में आकर जन्म लेने के पूर्व पन्द्रह माह तक कुबेर द्वारा रत्नवृष्टि की गई। ___ फाल्गुन शुक्ल अष्टमी के दिन प्रात:काल के समय मृगशिरा नक्षत्र में पुण्योदय से रानी सुषेणा ने सोलह स्वप्न देखे। तदनन्तर स्वप्न में ही उसने देखा कि सुमेरु पर्वत के शिखर के समान आकारवाला तथा सुन्दर लक्षणों से युक्त एक श्रेष्ठ हाथी मेरे मुख में प्रवेश कर रहा है। १. शलाका पुरुष भाग-१ देखें। २. संन्यास की विस्तृत जानकारी के लिए विदाई की बेला देखें। FREE FOR "FF 0
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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