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एकत्वरूप से परिणमता है; इसलिए हे जीवों! तुम भेदज्ञान करके रागरहित शुद्ध सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग में ही आत्मा को दृढ़रूप से परिणमित करो। सब अरहंत तीर्थंकर इसी विधि से मोक्ष को प्राप्त हुए हैं और तुम्हारे लिए भी मोक्ष का यही एक उपाय है।
बस! शुद्धस्वरूप में ही मोक्षमार्ग का समावेश है, राग का कोई अंश उसमें नहीं है। सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप शुद्धभाव से परिणमित आत्मा स्वयं ही मोक्ष का कारण है और स्वयं ही मोक्षरूप है।" __ तीर्थंकर परमात्मा का ऐसा धर्मोपदेश सुनकर अनेक जीव आत्मज्ञान को प्राप्त हुए, अनेक जीवों ने श्रावकधर्म तथा अनेकों ने मुनिधर्म अंगीकार किया। शान्तिनाथ तीर्थंकर की धर्मसभा में चक्रायुध आदि ३६ गणधर, ८०० श्रुतकेवली, ४१,८०० उपाध्याय, ३,००० अवधिज्ञानी मुनिवर, ६,००० विक्रियाऋद्धिधारी मुनिवर, ४,००० मन:पर्ययज्ञानी और २,४०० वादविद्या में निपुण मुनिवर विराजते थे और इस समस्त धर्मवैभव के साथ उस दिव्य श्रीमण्डप के समकक्ष ४,००० केवलज्ञानी-अरहंत विराजते थे। ६०,३०० आर्यिकायें, दो लाख सम्यक्त्वादि से सुशोभित धर्मात्मा श्रावक तथा चार लाख श्राविकायें थीं। सब मोक्ष की उपासना कर रहे थे। सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेवाले तिर्यंचों और देवों का तो प्रभु की धर्मसभा में कोई पार नहीं था।
समवशरण में प्रभु का धर्मोपदेश पूर्ण होने पर इन्द्रों ने १००८ मंगल नामों द्वारा प्रभु की स्तुति की। "हे देव! इन्द्र को आपकी गुणमहिमा प्रसिद्ध करने के लिए भले ही १००८ नाम ढूंढना पड़े; परन्तु हम तो मात्र एक सर्वज्ञता द्वारा ही आपकी सर्वगुणमहिमा को जान लेते हैं। हे प्रभो! जहाँ आपकी सर्वज्ञता को लक्ष में लेते हैं, वहाँ आपके अनन्त गुणों की स्वीकृति एकसाथ हो जाती है। शुद्धात्मा का अनुभव होकर हमारे मोह का क्षय हो जाता है।"
आपके विहार के समय आगे-आगे चलनेवाला एक हजार आरों वाला रत्नमय धर्मचक्र, करोड़ों वाद्यों | तथा करोड़ों ध्वजाओं के साथ चलता है। असंख्यात देव आपके धर्मचक्र की सेवा करते रहे हैं।
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