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सुगन्धित जल की बूंदे गिर रही थीं और (५) देव पुष्पवर्षा कर रहे थे; इसप्रकार पंचाश्चर्य प्रकट हुए।
इसप्रकार सोलह वर्ष तक मौनरूप में आत्मसाधना करके मोक्षमार्ग में आगे बढ़ते-बढ़ते शान्तिनाथ मुनिराज पुनः हस्तिनापुरी के सहस्रामवन में पधारे। हस्तिनापुरी के प्रजाजन अपने महाराज को मुनिदशा में देखकर अत्यन्त हर्षित हुए। जहाँ दीक्षा ली थी उसी वन में आकर मुनिराज शान्तिनाथ ध्यानस्थ हुए। साथ में चक्रायुध आदि हजारों मुनिवर भी वैराग्य में आत्मध्यान कर रहे थे।
पौष शुक्ल एकादशी को हस्तिनापुरी के सुन्दर उद्यान में हजारों आम्रवृक्ष असमय में ही आम्रफलों के भार से झुक गये थे; क्योंकि प्रभु शुक्लध्यानरूपी धर्मचक्र धारण कर, सर्वज्ञ होकर अनन्त ज्ञान एवं अनन्त सुखरूप परिणमित हुए थे। उसीसमय देवों ने आकर भक्तिपूर्वक उन सर्वज्ञ परमात्मा की पूजा की और सोलहवें तीर्थंकर का केवलज्ञान कल्याणक महोत्सव मनाया। कुबेर ने स्वर्गलोक की उत्तम सामग्री द्वारा दिव्य शोभायुक्त समवशरण की रचना की; इन्द्राणी ने उसमें रत्नों का चौक पूरा; करोड़ों दुंदुभिवाद्य बजने लगे।
जिससमय शान्तिनाथ प्रभु को पंचमज्ञान प्रकट हुआ, उसीसमय उनके भ्राता चक्रायुध मुनिराज को भी उन्हीं के सान्निध्य में चौथा ज्ञान प्रकट हुआ। दो सहोदरों में से एक तीर्थंकर हुए और दूसरे गणधर । दिव्य समवशरण की बारह सभायें देवों, मनुष्यों एवं तिर्यंचों से भर गई। आश्चर्य है कि वहाँ स्थान के माप की अपेक्षा बैठनेवाले जीवों की संख्या अत्यधिक होने पर भी किंचित् भी भीड़ नहीं थी। प्रभु के दर्शनों में सब इतने लीन थे कि किसी को कोई आकुलता नहीं थी। सर्वांग से खिरती हुई प्रभु की दिव्यध्वनि सबने शान्तिपूर्वक श्रवण की। प्रभु ने आत्मतत्त्व की परम गंभीर महिमा दरशाते हुए कहा -
“हे जीवों! यह आत्मतत्त्व स्वयं स्वतंत्र है; यह अनादि-अनन्त अपने उत्पाद-व्यय-ध्रुवस्वरूप में वर्तनेवाला है; ज्ञान और आनन्द उसका स्वभाव है, जो कि जीव के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं है। प्रत्येक आत्मा अपने स्वकीय असंख्यात प्रदेश में रहकर प्रतिसमय जानता और परिणमता है।
वह आत्मा स्व-पर का भेदज्ञान करके पर से विभक्त अपने ज्ञानस्वरूप को जानता है और उसी में | १५
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