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अरे! यदि बाह्यविषयों में सुख होता तो इन चक्रवर्ती के समक्ष तो सर्वोत्कृष्ट भोगोपभोग विद्यमान थे, फिर उन्हें त्यागकर वे वनवासी मुनि क्यों होते ? इसलिए निश्चित होता है कि बाह्यसामग्री में, विषयभोगों में या उनके संग में कहीं सुख है ही नहीं, सुख तो चैतन्यस्वरूप की अनुभूति में ही है। सुख आत्मा का र्द्ध स्वभाव है और उसके ध्यान में जो अतीन्द्रिय शान्ति का वेदन होता है, वही सच्चा सुख है ।
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पीछे चला गया और वैराग्यपूर्वक प्रभु के निकट ही रहने लगा ।
प्रभु के जन्मोत्सव में सम्मिलित होने के लिए आये हुए एक हजार राजा भी प्रभु के साथ दीक्षा लेने हेतु तैयार हुए। चक्रवर्ती के भाई चक्रायुध कुमार भी दीक्षा ग्रहण करने हेतु तत्पर थे ।
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प्रभु शान्तिनाथ ने चक्रवर्ती पद से निकलकर परमेष्ठीपद में प्रवेश किया। बारह भव के साथी उनके भाई चक्रायुधकुमार ने भी प्रभु के साथ जिनदीक्षा ग्रहण की; अन्य हजारों राजा भी मुनि हो गये। लाखों | जीवों ने वैराग्यपूर्वक श्रावक के व्रत लिये; कुछ तिर्यंच जीव भी व्रतधारी हुए ।
मुनिराज शान्तिनाथ की ध्यानदशा देखकर अनेक जीवों ने आत्मा के अतीन्द्रिय सुख की प्रतीति करके सम्यग्दर्शन प्राप्त किया। उनके दीक्षाकल्याणक का महोत्सव अनेक जीवों के कल्याण का कारण बना।
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मुनिराज शान्तिनाथ बारम्बार शुद्धोपयोगी होते थे । दीक्षा के पश्चात् दो दिन के उपवास करके वे ध्यान | के प्रयोग में रहे । पश्चात् तीसरे दिन पारणा हेतु मन्दिरपुरी में पधारे। तीर्थंकर जैसे सुपात्र को अपने प्रांगण | में देखते ही राजा सुमित्र को अपार हर्ष हुआ, उसने भक्तिसहित पड़गाहन किया एवं नवधा भक्ति से गुरु ति | के चरणों का प्रक्षालन किया, इन्हें उच्चासन पर विराजमान करके अर्घ्य द्वारा पूजा की एवं उनके करकमलों | में आहारदान दिया । तीर्थंकर को मुनिदशा में प्रथम आहारदान दाता के रूप में उन्हें तद्भव मोक्षगामीपना प्राप्त हुआ था। उस आहारदान के हर्षोपलक्ष्य में उसीसमय आकाश में (१) देवों के दुन्दुभि वाद्य बज रहे थे, (२) रत्नवृष्टि हो रही थी, (३) अहो दानं... कहकर देव उस दान की प्रशंसा कर रहे थे; (४) शीतल वायुसहित
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