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(२३७|| पहिनाये । बस! वैरागी शान्तिनाथ का संसार में यह अन्तिम स्नान एवं अन्तिम वस्त्र थे।
॥ शिबिका में बैठकर वैरागी शान्तिनाथ ने जब वनगमन किया, तब प्रथम भूमिगोचरी राजाओं ने, पश्चात् ला विद्याधर राजाओं ने और तत्पश्चात् इन्द्रों ने वह शिबिका कन्धों पर उठायी और आकाशमार्ग में चलने लगे।
उन संसार से विरक्त चक्रवर्ती शान्तिनाथ के अचानक वैराग्य की बात सुनकर रानियों को किंचित् आघात लगा। इन्द्राणी उन्हें आश्वासन देने का विचार कर ही रही थी, इतने में तो उन रानियों ने स्वयं विवेकबुद्धि से समाधान करके शूरवीरता से दृढ़ निश्चय किया कि हम जिसप्रकार भोग में स्वामी की सहचरी थीं उसीप्रकार अब योग में भी स्वामी के साथ रहेंगी। हम भी अब देशव्रत धारण करके वैराग्यमय जीवन जियेंगी। हमारे स्वामी को जब केवलज्ञान होगा तब हम भी समवसरण में जाकर प्रभु के चरणों में आत्मकल्याण करेंगे। इसप्रकार वे रानियाँ भी अब राजवैभव के प्रति बिलकुल उदासीन हो गई थीं और देशव्रत का पालन करते हुए उत्तम श्राविकाओं जैसा वैरागी जीवन जीने लगी थीं। इन्द्राणी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा - "तुम्हें तो इस भव में देशव्रत का अवसर है; परन्तु हमें इस देवी पर्याय में संयम का कोई अवसर नहीं है। तीर्थंकर के संग से तुम्हारा जीवन धन्य हुआ है।"
हजारों वर्ष से चक्रवर्ती की सेवा करनेवाले देव, सम्राट का वैराग्य देखकर हाथ जोड़े खड़े थे और देवपर्याय से मनुष्यपर्याय को श्रेष्ठ मानते हुए कह रहे थे कि “अरे! जिनकी सेवा से हमें आनन्द मिलता था। वे हमारे स्वामी तो दीक्षा ले रहे हैं; हम भी यदि मनुष्य होते तो अपने स्वामी के साथ दीक्षा ग्रहण करते। अब तो जब वे केवलज्ञान प्राप्त कर धर्मचक्री बनेंगे तब समवसरण में जाकर उनकी सेवा करेंगे और दिव्यध्वनि सुनकर आत्मकल्याण करेंगे।" ___ शान्तिनाथ की दीक्षायात्रा - चक्रवर्ती के सेनापति आदि रत्नों ने भी स्वामी के साथ दीक्षा ले ली। हाथियों का सरदार विजनायक विचारने लगा कि “अरे! जब मुझ पर आरूढ़ होनेवाले स्वामी सब छोड़कर | वन में जा रहे हैं तो मैं राज्य में रहकर क्या करूँगा?" ऐसा विचारकर वह विजय हाथी भी प्रभु के पीछे
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