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| चक्रवर्ती भी मैं ही था। अरे! दूसरे भोगों की तो क्या बात, यह चक्रवर्ती पद की विभूति भी मेरे लिए नवीन | नहीं है-पूर्व में यह भी मैं प्राप्त कर चुका हूँ, इतना ही नहीं, उसे छोड़कर मैंने साधुदशा भी ग्रहण की थी। मेरे रत्नत्रयनिधान के निकट अन्य किसी निधान का क्या मूल्य है ?"
इसप्रकार दर्पण में दिखायी दिये प्रतिबिम्ब के निमित्त से अपने पूर्वभवों का जातिस्मरण होते ही शान्तिनाथ चक्रवर्ती वैराग्य को प्राप्त हुए और विचारने लगे कि “अरे! मेरे जीवन के पचहत्तर हजार वर्ष बीत गये। मुझे अभी केवलज्ञान की साधना करना है। अब इन क्षणभंगुर वैभवों में या राग में रुकना मेरे लिए उचित नहीं है। बस! मैं आज ही इस राजवैभव को छोड़कर दीक्षा अंगीकार करूँगा और जिनेन्द्र बनूँगा।
महाराजा शान्तिनाथ तो अपने वैराग्य चिन्तन में एकाग्र थे, बारह भावनाओं द्वारा संसार की असारता का चितवन करके, परम सारभूत निज परमतत्त्व में उपयोग लगा रहे थे। इतने में ब्रह्मस्वर्ग के लौकान्तिक देव वहाँ उतरे। श्वेत वस्त्रधारी वे वैरागी देव जैन ऋषियों के समान शोभते थे। उन्होंने आकर तीर्थंकर के चरणों में वंदन किया और उनके परम वैराग्य की प्रशंसा की - "अहो देव! आप इस भरतक्षेत्र के सोलहवें तीर्थंकर हैं, दीक्षा संबंधी आपके विचार उत्तम हैं। आप दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्रकट करेंगे और जगत के जीवों को मोक्षमार्ग दरशायेंगे। भरतक्षेत्र में अनेक वर्षों से विच्छिन्न धर्मप्रवाह को पुनः अविच्छिन्न धारारूप करने का समय आ गया है और वह आपके द्वारा ही होगा। धन्य है यह चारित्र धारण करने का सुअवसर! हम भी इस अवसर के लिए लालायित हैं, इसलिए आपके चारित्र का अनुमोदन करने आये हैं।" ऐसी स्तुति करके वे लौकान्तिक देव पुनः ब्रह्मस्वर्ग में चले गये।
उसीसमय करोड़ों देवों के साथ प्रभु का जय-जयकार करते हुए स्वर्ग से इन्द्र आ पहुँचे। वैरागी शान्तिनाथ को दीक्षावन में ले जाने के लिए स्वर्गलोक से सर्वार्थसिद्धि नामक दिव्य शिबिका भी वे साथ लाये थे। उस अवसर पर एक ओर तो महाराजा शान्तिनाथ ने राजपुत्र को राज्य सौंपकर उसका राज्याभिषेक किया और दूसरी ओर इन्द्रों ने शान्तिनाथ का दीक्षा अभिषेक करके स्वर्गलोक से लाये हुए दिव्य वस्त्राभूषण | १५
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