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| प्रभु शान्तिनाथ को छह खण्ड की दिग्विजय करने में मात्र आठ वर्ष लगे थे। जबकि उसी काम में चक्रवर्ती || भरत को साठ हजार वर्ष लगे थे। प्रत्येक चक्रवर्ती अपनी विजयगाथा वृषभाचलपर्वत की शिला पर | उत्कीर्ण करता है; परन्तु उत्कीर्ण करने के स्थान के लिए उसे पूर्वकाल के किसी एक चक्रवर्ती का लेख मिटाना पड़ता है और तब उनका गर्व उतरता है; परन्तु प्रभु श्री शान्तिनाथ चक्रवर्ती की बात उन सब |चक्रवर्तियों से अलग थी; क्योंकि उन सब चक्रवर्तियों में कोई तीर्थंकर नहीं थे। उस शिला के अग्रभाग में उनके तीर्थंकर प्रकृति के पुण्य प्रभाव से उनका नाम लिखने का स्थान स्वत: बन गया था। इसप्रकार शान्तिनाथ महाराजा छह खण्ड की दिग्विजय करके भरतक्षेत्र के पाँचवें चक्रवती हुए" - ऐसा शिलालेख वज्र द्वारा उत्कीर्ण किया।
इसप्रकार हस्तिनापुरी के महाराजा शान्तिनाथ दूसरी बार चक्रवर्ती हुए। इससे पहले पूर्व पाँचवें भव में भी वे विदेहक्षेत्र में क्षेमंकर तीर्थंकर के पुत्र वज्रायुध थे; तब चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था और पश्चात् उसे | छोड़ दिया था; परन्तु वह चक्रवर्ती पद मानो अब भी प्रभु का संग छोड़ना नहीं चाहता हो । देखो न, भगवान शान्तिनाथ तो राज्य छोड़कर तथा शरीर को भी त्याग कर मोक्ष में पहुँचे। उसे असंख्यात वर्ष बीत जाने पर भी, वे चक्रवर्ती और तीर्थंकर पद आज भी उनका पीछा नहीं छोड़ते, इसलिए उनके साथ चक्रवर्ती शान्तिनाथ, तीर्थंकर शान्तिनाथ - इसप्रकार विशेषण लगे हुए हैं।
चक्रवर्ती शान्तिनाथ का वैराग्य - महाराजा शान्तिनाथ चक्रवर्ती का जन्म-दिवस मनाया जा रहा था। उनके अवतार को आज पचहत्तर हजार वर्ष पूरे हुए थे। देश-विदेश में उत्तम भेंट लेकर एक हजार राजा उत्सव में सम्मिलित होने आये थे। महाराजा शान्तिनाथ राजदरबार में जाने की तैयारी करके दर्पण में मुँह देख रहे थे, इतने में तो अरे, यह क्या! महाराजा अचानक चौंक पड़े, दर्पण के प्रतिबिम्ब में पहले सुन्दर रूप दिखायी दिया, वह दूसरे क्षण बदल गया, क्षणभर में ऐसा परिवर्तन । शरीर की ऐसी क्षणभंगुरता! उसीसमय उन्हें अपने निर्मल ज्ञानदर्पण में अपने अनेक भवों के अनेक रूप दृष्टिगोचर हुए। "मैं ही सर्वार्थसिद्धि में था और मैं ही घनरथ तीर्थंकर का पुत्र था तथा विदेहक्षेत्र के क्षेमकर तीर्थंकर का पुत्र वज्रायुध