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२३०|| में उपयोग स्व में तथा पर में दोनों में एकसाथ नहीं लगता; एकसमय एक में ही उपयोग होता है।"
शान्तिनाथ ने फिर पूछा - "तो क्या उससमय जीव को स्व-पर का ज्ञान नहीं है ?"
चक्रायुध - "है; परन्तु छद्मस्थ जीव अपने उपयोग को स्वज्ञेय में ही लगाता है। जिस भेदज्ञान द्वारा परवस्तु को पररूप जाना है वह ज्ञान उस पर्याय में वर्तता अवश्य है; परन्तु लब्धरूप वर्तता है। उपयोग में तो आत्मा ही ज्ञाता और आत्मा स्वयं ही ज्ञेय है। पर से भिन्नता का ज्ञान कराने के लिए कहीं परसन्मुख उपयोग होना आवश्यक नहीं है। अपने शुद्ध आत्मा को स्वज्ञेय रूप से जाना और उसमें राग की या जड़ की मिलावट नहीं की, वही भेदज्ञान है। ज्ञानी को वह निरन्तर वर्तता है।"
शान्तिनाथ ने जानना चाहा - "धर्मी का उपयोग अन्तर में हो तब तो उस अतीन्द्रिय उपयोग में इन्द्रिय विषय छूट गये हैं; परन्तु जब उसी धर्मी का उपयोग बाह्य में हो और इन्द्रियज्ञान हो, तब उस बाह्य उपयोग के समय क्या उसे मात्र इन्द्रियज्ञान ही होता है अथवा अतीन्द्रियज्ञान भी होता है?"
चक्रायुध ने कहा - "धर्मी को बाह्य उपयोग के समय इन्द्रियज्ञान होता है तथा उसीसमय उसे उस पर्याय में अतीन्द्रियज्ञान नहीं है, तथापि उसी पर्याय में पहले जो आत्मज्ञान किया है, उसकी धारणा वर्तती है, || इसलिए अतीन्द्रियज्ञान का परिणमन (लब्धरूप) से उसी पर्याय में चल सकेगा। इसलिए अतीन्द्रिय ज्ञान तथा अनंतानुबंधी कषाय के अभावरूप शान्ति, सम्यक् श्रद्धा आदि इन्द्रियातीत शुद्धभाव धर्मी की पर्याय में सदा वर्तते ही हैं और उन भावों द्वारा ही धर्मी जीव की सच्ची पहिचान होती है।"
चैतन्यरस से परिपूर्ण ऐसी सरस तत्त्वचर्चा और वह भी तीर्थंकर-गणधर होनेवाले दो महात्माओं के श्रीमुख से सुनकर सभाजन स्वानुभूति के गम्भीर रहस्य को स्पष्टरूप से समझ गये और उसीसमय अनेक जीवों ने स्वानुभूति भी प्राप्त की थी। तीर्थंकर-प्रकृति का उदय आने से पूर्व ही चक्रवर्ती सम्राट शान्तिनाथ ने गृहस्थ अवस्था में ही आंशिक धर्मतीर्थ का प्रवर्तन प्रारम्भ कर दिया।
स्वानुभव की इस सुन्दर चर्चा द्वारा पाठकों को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि तीर्थंकरों का समस्त जीवन ॥
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