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साथ क्रीड़ा करने हेतु उन्हीं जितने बालक का रूप धारण करके हस्तिनापुरी में रहते थे। दोनों भ्राता | आत्मानुभवी, चरमशरीरी तथा अत्यन्त आत्मरसिक थे।
एक बार शान्तिनाथ और चक्रायुध दोनों मनोहर उद्यान में पर्यटन हेतु गये। साथ में और भी अनेक लोग थे। आनन्द-प्रमोद में दिन पूरा हुआ। सायंकाल शान्तिनाथ ने अपने भाई से कहा “भाई चक्र ! चलो, शान्ति से दो घड़ी अन्तर में परमात्मतत्त्व का चिंतन करें।" यह बात सुनकर चक्रकुमार प्रसन्न हुए और दोनों भाई ध्यान में बैठकर आत्मस्वरूप का चिन्तन करने लगे। उपयोग निजस्वरूप में एकाग्र होने से स्वानुभूति के निर्विकल्प आनन्द का अनुभव हुआ। योगी समान ध्यानस्थ उन दोनों राजकुमारों को देखकर सब लोग भी प्रभावित हुए और सब बाह्य प्रवृत्ति छोड़कर आत्मचिन्तन में बैठ गये। चारों ओर शान्ति का स्तब्ध वातावरण छा गया। अरे! वन के सिंह और शशक, सर्प और मोर आदि पशु-पक्षी भी उनकी शांत ध्यानमुद्रा देखकर आश्चर्य को प्राप्त हुए और परस्पर का बैरभाव छोड़कर प्रभु सन्मुख बैठ गये।
शान्तिनाथ ने पूछा - "हे बन्धु! स्वानुभूति के समय अन्तर में आत्मा कैसा दिखायी देता है ?"
चक्रायुध बोले - "अहो देव! जब मैंने स्वयं अपने को देखा तो मुझे जो अतीन्द्रिय आनन्द की अनुभूति हुई, वह आत्मानुभूति वचनातीत एवं विकल्पातीत थी। परमशांतस्वरूप से आत्मा स्वयं ही प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय | ज्ञान के स्वाद में स्वयं आता था। वहाँ इन्द्रियाँ नहीं थीं, राग नहीं था, द्रव्य-गुण-पर्याय के कोई भेद भी नहीं थे। अकेला ज्ञायक आत्मा स्वयं अपने आनन्द में लीन होकर सर्वोपरि परमतत्त्व में प्रकाशित हो रहा था।"
शान्तिनाथ ने पुनः प्रश्न किया - “उस स्वानुभूति के समय निर्विकल्प उपयोग में स्व-पर प्रकाशकपना किसप्रकार होता है?
चक्रायुध बोले - "उस समय अंतर्मुख उपयोग में मात्र आत्मप्रकाशन है, आत्मा स्वयं ही ज्ञाता और स्वयं ही ज्ञेय - इसप्रकार ज्ञेय-ज्ञायक की अभिन्नता है। उससमय उपयोग में परज्ञेय नहीं होता; क्योंकि साधकदशा || १५
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