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शान्तिनाथ रखा। उनके चरण में मृग का चिह्न था। जन्माभिषेक के पश्चात् एक हजार आठ मंगल नामों से इन्द्र ने प्रभु की स्तुति की। अद्भुत ताण्डव नृत्य किया और शोभायात्रा के साथ हस्तिनापुर लौटे।
हस्तिनापुर के राजमहल में आकर इन्द्र ने सम्मानपूर्वक भगवान के माता-पिता को उनका पुत्र सौंपा और उनके समक्ष पुन: बाल तीर्थंकर की भक्ति की। इन्द्र-इन्द्राणी के साथ थिरक-थिरककर नाच उठा।
पन्द्रहवें तीर्थंकर भगवान धर्मनाथ का शासन लगभग तीन सागर तक चला; उसके अन्त भाग में व पल्य (असंख्य वर्ष) तक धर्म का विच्छेद हो गया था; तत्पश्चात् सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ भगवान का अवतार हुआ और धर्म की धारा पुनः प्रवाहित हुई। उनकी आयु एक लाख वर्ष की थी, जगत में श्रेष्ठ ऐसा चक्रवर्ती पद, सर्वार्थसिद्धि-इन्द्रपद या तीर्थंकर पद धर्माराधक जीवों को ही प्राप्त होते हैं; ऐसी समस्त पदवियाँ धर्माराधक भगवान शान्तिनाथ के जीव को प्राप्त हुई थीं, तथापि अंत में तो उन सब कर्मजनित संयोगी पदवियों को छोड़कर प्रभु ने स्वभावभूत ऐसे असंयोगी सिद्धपद को ही साधा। ___ कामदेव, चक्रवर्ती और तीर्थंकर के रूप में उनके शरीर की सुन्दरता तो सर्वोत्कृष्ट थी; पर अंतर में अपूर्व भेदज्ञान, क्षायिकसम्यक्त्व और अवधिज्ञान द्वारा उनके आत्मा का सौन्दर्य भी महान था। उनकी दस अंगुलियों की कोमलता में मानो उत्तमक्षमादि दस धर्मों का वास था, इसलिए उनमें किंचित् कठोरता नहीं थी। उन बाल तीर्थंकर शान्तिकुमार के मस्तक के कोमल-धुंघराले बालों से लेकर पैरों के चमकदार नखों तक शरीर के समस्त अवयवों की शोभा को भिन्न-भिन्न वर्णन करने की क्या आवश्यकता है ? इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि उस शरीर के सर्वांग में व्याप्त होकर एक महामंगलरूप तीर्थंकर प्रभु विराज रहे थे।
बालक शान्तिनाथ का अवतार होने के कुछ समय पश्चात् महाराज अश्वसेन की दूसरी रानी ने भी एक पुत्र को जन्म दिया। मेघरथ के भव में जो दृढ़रथ नाम का भाई था और जो सर्वार्थसिद्धि में साथ था, | वह जीव वहाँ से चयकर यहाँ शान्तिनाथ के भ्राता चक्रायुध के रूप में अवतरित हुआ।
दोनों भ्राता दिन-प्रतिदिन वृद्धिंगत होने लगे। उनकी बाल क्रीड़ायें भी आश्चर्यजनक थीं। देव भी उनके
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