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| इसप्रकार प्रसन्नता के वातावरण में सवा नौ महीने बीत गये तत्पश्चात् ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन माता अचिरादेवी ने ऐसे पुत्र को जन्म दिया, जिसके महातेज से पृथ्वी जगमगा उठी । मात्र मनुष्यलोक का ही ला नहीं, स्वर्ग का तथा नरक का वातावरण भी दो क्षण के लिए शान्तिमय हो उठा । सर्वत्र ही एक प्रकार का नूतन आल्हाद छा गया। स्वर्ग के दिव्य वाद्य एकसाथ बजने लगे और दिव्य ऐरावत हाथी पर बैठकर इन्द्र पु हस्तिनापुरी में बालप्रभु का जन्मोत्सव मनाने देवों के ठाट-बाट सहित आ पहुँचे ।
बाल तीर्थंकर को गोद में लेकर इन्द्राणी धन्य हो गई। अहा ! तीर्थंकर समान धर्मात्मा का सीधा स्पर्श होने से वह परम वात्सल्यपूर्वक रोमांचित हो गई । देव पर्याय में यद्यपि पुत्र नहीं होते; परन्तु किसी सातिशय पुण्ययोग से तीर्थंकर शिशु को अपनी गोद में लेते हुए उस इन्द्राणी को पुत्रसुख का अनुभव हुआ। वह ऐसा वेदन करने लगी कि मानो वही बच्चे की माँ हो ।
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बाल तीर्थंकर भी अनेक जीवों को सम्यक्त्व में कारण होते हैं। मोक्षगामी बालक को गोद में लेने से वह इन्द्राणी भी मोक्षगामी बन गई । आनन्द के रोमांचपूर्वक इन्द्राणी ने उन बाल तीर्थंकर को इन्द्र के हाथ | में दे दिया । इन्द्र बालक को देखकर तृप्त नहीं हुआ तो उसने एक साथ हजार नेत्र बनाकर प्रभु का रूप निहारा । मनुष्यलोक की तीर्थंकर - विभूति के समक्ष स्वर्गलोक की इन्द्रविभूति भी उसे तुच्छ लगने लगी । प्रभु को दैवी ऐरावत हाथी पर विराजमान करके महान शोभायात्रा सहित इन्द्र मेरुपर्वत पर ले गया और वहाँ अतिशय भक्तिपूर्वक जन्माभिषेक किया ।
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"उन शिशु भगवान का स्वरूप यद्यपि स्वयं सुशोभित था, शोभा के लिए किसी बाह्य-अलंकार की आवश्यकता उनको नहीं थी; तथापि स्वर्गलोक स्थित मानस्तम्भ के दिव्य पिटारों से उत्पन्न हुए सर्वोत्कृष्ट न्ति अलंकार मैं तीर्थंकर के अतिरिक्त किसे पहनाऊँ ? उन दिव्य अलंकार को धारण कर सके ऐसा तो विश्व में दूसरा कोई है नहीं" ऐसा सोचकर इन्द्राणी ने स्वर्ग के दिव्य वस्त्राभूषण बाल तीर्थंकर को पहिनाये और | साथ ही प्रभु के मस्तक पर रत्नों का मंगल तिलक लगाया। आश्चर्यपूर्वक प्रभु को निहारने लगी।
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उन प्रभु के दर्शन से सर्वजीवों को शान्ति हो रही थी, इससे इन्द्र ने उन सोलहवें तीर्थंकर का नाम
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