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हैं तो मैं उनके मोह में क्यों पइँ ? मैं तो आपका भव-भवान्तर का साथी-सहोदर हूँ और मोक्ष होने तक आपके साथ ही रहूँगा। इसलिए मैं भी आपके साथ दीक्षा लेकर परमपिता के चरण में रहँगा।
इसप्रकार घनरथ तीर्थंकर के चरणों में उनके पुत्र मेघरथ तथा दृढ़रथ दोनों ने जिनदीक्षा अंगीकार कर ली; उनके साथ अन्य सात हजार राजाओं ने भी दीक्षा ग्रहण की तथा महारानी प्रियमित्रा आदि अनेक श्राविकायें भी दीक्षा लेकर आर्यिका बन गईं।
दीक्षा लेकर मेघरथ और दृढ़रथ दोनों मुनिवरों ने आत्मध्यान द्वारा शुद्धरत्नत्रय धारण किये, उत्तम तप किया और बारह अंग का ज्ञान प्रकट करके श्रुतकेवली हुए। वे सदैव उत्तम वैराग्य भावनाओं में तत्पर रहते थे। घनरथ तीर्थंकर के सान्निध्य में मेघरथ मुनिराज ने क्षायिक सम्यक्त्व प्रकट किया तथा दर्शनविशुद्धि आदि सोलह उत्तम भावनाओं द्वारा सर्वोत्कृष्ट तीर्थंकर प्रकृति बांधना प्रारम्भ किया, मानों एक तीर्थंकर पिता के पास से उन्हीं के पुत्र ने तीर्थंकरत्व का उत्तराधिकार प्राप्त किया।
वैराग्य की वृद्धि तथा कर्मों की हानि के हेतु वे सदा अध्रुव-अशरण-संसार-एकत्व-अन्यत्व-अशुचिआस्रव-संवर-निर्जरा-लोक-बोधिदुर्लभ एवं धर्म - इन बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करते थे। इन वैराग्य भावनाओं का चिन्तन उनके चित्त में आनन्द उत्पन्न करता था, वे बारम्बार शुद्धोपयोग द्वारा निर्विकल्प मोक्षसुख का वेदन करते थे। बाह्य स्थित जीव शुद्धोपयोगी मुनि और सिद्धों में अन्तर देखते हैं तो देखें; परन्तु उन्हें स्वयं तो निर्विकल्प आनन्द में लीनता होने से कोई द्वैत दिखायी नहीं देता।
ऐसी आनन्दमय दशा में झूलते-झूलते वे मेघरथ एवं दृढ़रथ मुनिवर अनेक वर्षों तक विचरे और धर्मोपदेश द्वारा अनेक जीवों का कल्याण किया। चौंसठ महान ऋद्धियों में से केवलज्ञान के अतिरिक्त अन्य सर्वऋद्धियाँ उनको प्रकट हुईं थीं, किन्तु उन लब्धियों का उपयोग करना उनका लक्ष्य नहीं था, उनका लक्ष्य तो चैतन्य की साधना ही था । जब उनकी आयु एक ही मास शेष रही, तब उन्होंने विधिपूर्वक समाधिमरण करने हेतु प्रायोपगमन संन्यास धारण किया। शरीर की अत्यन्त उपेक्षा करके वे ध्यान-स्वाध्याय में ही रहने
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