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मोक्षमार्ग बतलाते हुए विदेहक्षेत्र में विचरने लगे ।
आत्मसाधना में तत्पर तथा संयम की भावना में तल्लीन रहनेवाले महाराजा मेघरथ ने एकबार पर्व तिथि में प्रोषध उपवास किया था; दिनभर आत्मसाधना में रहकर रात्रि के समय एकान्त उद्यान में जाकर वे धर्मात्मा ध्यान में स्थित थे । वे धीर-वीर महाराजा प्रतिज्ञापूर्वक प्रतिमायोग धारण करके मुनि समान शोभा देते थे । इतने में ईशान स्वर्ग की इन्द्रसभा में इन्द्र ने आश्चर्यपूर्वक उनकी प्रशंसा की कि - "अहो ! उन | महाराजा को धन्य है । वे सम्यक्त्वादि गुणों के सागर हैं, ज्ञानवान एवं विद्वान हैं, अत्यन्त धैर्यवान हैं; शीलवान हैं। इससमय वे मेरु समान अचल दशा में आत्मध्यान कर रहे हैं। आत्मचिन्तन में उनकी तत्परता | देखकर आश्चर्य होता है । अहो ! उन्हें नमस्कार हो।"
इन्द्र द्वारा प्रशंसा सुनकर देवों को आश्चर्य हुआ और पूछा " हे नाथ ! इससमय आप किसकी स्तुति | कर रहे हैं? मनुष्यलोक में कौन ऐसे महात्मा हैं - जिनकी प्रशंसा इस देवसभा में हो सकती है।”
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तब इन्द्र ने कहा – “हे देवों, सुनो! मनुष्य लोक के विदेहक्षेत्र में इससमय राजा मेघरथ ध्यानमग्न हैं, | उन्हीं की प्रशंसा मैं कर रहा हूँ । एक भव के पश्चात् वे भरतक्षेत्र में शान्तिनाथ तीर्थंकर होनेवाले हैं, उन्होंने | शरीर का भी ममत्व छोड़कर इससमय प्रतिमायोग धारण किया है और आत्मध्यान में स्थित हैं ।
इन्द्र की बात सुनकर दूसरे सब देव तो प्रसन्न हुए; परन्तु दो देवियाँ उनकी परीक्षा करने के लिए पृथ्वीं पर आयीं और उन्हें ध्यान से डिगाने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के हावभाव दिखलाकर उपद्रव करने लगीं; परन्तु महाराजा मेघरथ तो काया और माया दोनों से परे थे, अत्यन्त धीर-वीर एवं सागर समान गंभीर वे अपने परमात्मतत्त्व के आनन्द में लीन थे। उनके परिणाम अत्यन्त शान्त थे; आत्मा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं उनका चित्त नहीं लगा था ।
स्वर्ग से आयी हुई देवियों ने अनेकप्रकार के उपसर्ग प्रारम्भ किये -कायर मनुष्य का तो कलेजा कांप
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