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को उत्तम मोक्ष सुखों में स्थापित करता है।" इसप्रकार केवली भगवान का उपदेश सुनकर धर्मात्मा वज्रायुध चक्रवर्ती का चित्त संसार के विषय-भोगों से विरक्त हो गया। अरे! देखो तो सही, जिनके पिता तीर्थंकर, | जो स्वयं भावी तीर्थंकर, वे इससमय अपने पौत्र के उपदेश से वैराग्य प्राप्त करते हैं। वैराग्य पाकर वज्रायुध | महाराजा विचार करने लगे कि - "अरे! इस संसार में विषय-भोगों की प्रीति प्रबल है; आत्मज्ञानी को | भी उसका अनुराग छोड़कर मुनिदशा धारण करना दुर्लभ है। आश्चर्य है कि जो कनकशान्ति मेरा पौत्र था | उसने तो अपने आत्मबल से बचपन में ही केवलज्ञान सम्पदा प्राप्त कर ली और परमात्मा बन गये। धन्य
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॥ वैरागी वज्रायुध ने रत्नपुरी के राज्य का भार अपने पुत्र सहस्रायुध को सौंप दिया और अपने पिताश्री | क्षेमंकर तीर्थंकर के समवसरण में जाकर जिनदीक्षा धारण की। वैराग्य पौत्र के उपदेश से प्राप्त किया था
और दीक्षा पिता के निकट ली। छह खण्ड का चक्रवर्ती वैभव छोड़कर दीक्षा के पश्चात् श्री वज्रायुध मुनिराज सिद्धाचल पर्वत पर एक वर्ष का प्रतिमायोग धारण कर अचलमुद्रा में स्थित हुए। बाहुबलि भगवान की भांति उन्होंने भी एक वर्ष तक अडोलरूप से ऐसा ध्यान तप किया कि लतायें कण्ठ तक लिपट गईं; सिंह, सर्प, हिरण, खरगोश आदि प्राणी उनके चरणों में आकर शान्तिपूर्वक रहने लगे। उनकी शांत || ध्यानमुद्रा से प्रभावित होकर हिंसक पशु भी शान्त हो जाते थे। पूर्व के बैरी असुरदेव ने उन्हें ध्यान से डिगाने के लिए घोर उपसर्ग किया; तथापि वज्र मुनिराज तो ध्यान में वज्रसमान स्थिर रहे; उनका चित्त चलायमान नहीं हुआ। अंत में भक्त-देवियों ने आकर असुर देवों को भगा दिया। मुनि वज्रायुध अनेक वर्षों तक रत्नत्रय की आराधना सहित विदेहक्षेत्र में विचरते रहे।
इधर, वज्रायुध महाराजा के पुत्र सहस्रायुध ने कुछ काल तक रत्नपुरी का राज्य किया, फिर उनका चित्त भी संसार से विरक्त हुआ; वे विचारने लगे कि मेरे दादाजी तो तीर्थंकर हैं, पिताजी भी चक्रवर्ती की सम्पदा छोड़कर मुनि बनकर मोक्ष की साधना कर रहे हैं, मेरा पुत्र भी दीक्षा लेकर केवलज्ञानी हो गया और मैं अभी तक विषय-भोगों में पड़ा हूँ। अरे, यह दुःखदायक एवं पापजनक विषय-भोग मुझे शोभा नहीं देते ॥ १५
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