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राजचक्री हुए; परन्तु धर्मात्माओं के लिए तो तीर्थंकर का पद ही अधिक महिमावंत होता है।
अब, उन वज्रायुध चक्रवर्ती का पौत्र (क्षेमंकर तीर्थंकर का प्रपौत्र) कनकशान्ति जो कि चरमशरीरी थे, वह एकबार परिवार सहित वनविहार करने गए। उन्हें वन में रत्नत्रयवन्त मुनिराज के दर्शन हुए। उन मुनिराज के निकट धर्मोपदेश सुनकर वे कनकशान्ति वैराग्य को प्राप्त हुए और दीक्षा लेने की तैयारी करने लगे। तब उसके दादा वज्रायुध ने तथा सहस्रायुध ने कहा - "बेटा अभी तुम छोटे हो; अत: अभी तुम राजभोग भोगो; फिर हम जब दीक्षा लेंगे तब तुम भी हमारे साथ दीक्षा ग्रहण कर लेना।"
परन्तु वैरागी कनकशान्ति ने कहा - "हे दादाजी! हे पिताजी! जीवन का क्या भरोसा ? और मनुष्य | भव के यह दुर्लभ दिन विषय-भोगों में गंवा देना चिन्तामणि को समुद्र में फैंकने के समान है; अत: बचपन से ही धर्म की साधना कर्तव्य है; इसलिए मैं तो आज ही दीक्षा लूँगा। ऐसा कहकर कनकशान्ति ने वन में जाकर जिनदीक्षा ले ली। वे कनक मुनिराज विद्याधर के अनेक उपसर्गों में भी आत्मध्यान में अडोल रहकर अल्पकाल में केवलज्ञान को प्राप्त हुए। ____ अपने पौत्र को केवलज्ञान होने के समाचार सुनते ही अति आनन्दित होकर वज्रायुध चक्रवर्ती ने उत्सव किया और स्वयं धूमधाम से उन जिनराज की वन्दना पूजा के लिए गये। वहाँ स्तुतिपूर्वक प्रार्थना की - "हे जिनराज! सांसारिक कषायों से डरकर मैं आपकी शरण में आया हूँ, मुझे धर्मोपदेश सुनाने की कृपा कीजिए। अनेक देव और विद्याधर भी आपकी शरण में आ गये हैं। श्री कनककेवली की दिव्यध्वनि में आया - “संसार अनादि अनन्त है, अज्ञानी जीव उसका पार नहीं पा सकते; परन्तु भव्यजीव आत्मज्ञान द्वारा अनादि संसार का भी अन्त कर देते हैं। जो रत्नत्रयरूपी धर्म नौका में नहीं बैठते वे अनंतबार संसारसमुद्र में डूबते हैं; परन्तु जो आत्मज्ञान करके एकबार धर्म नौका में बैठ जाते हैं। वे भव समुद्र को पार कर मोक्षपुरी में पहुँच जाते हैं। इसलिए मोक्षार्थी जीव को भवसमुद्र से पार होने के लिए अवश्य धर्म का सेवन करना चाहिए। धर्म ही माता-पिता के समान हितकारी है, वही जन्म-मरण के दुःखों से उबारकर जीवों ||
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