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|| में) उसके फल को भोगता है; इसलिए पर्याय अपेक्षा से देखने पर जो करता है, वही नहीं भोगता और द्रव्यश | अपेक्षा से देखने पर जिस जीव ने कर्म किए हैं, वही जीव उनके फल को भोगता है।"
। अन्त में देव ने पूछा - “क्या जीव स्वयं ज्ञान से जानता है ? या इन्द्रियों से ?"
वज्रायुधकुमार ने कहा - "हे भव्य! जीव ज्ञानस्वरूप है इसलिए वह स्वयं ज्ञान से ही जानता है; इन्द्रियाँ कहीं जीव स्वरूप नहीं है; शरीर और इन्द्रियाँ तो अचेतन-जड़ हैं; उनसे जीव भिन्न है। अरहंत एवं सिद्ध भगवन्त तो इन्द्रियों के बिना ही सबको जानते हैं; स्वानुभवी धर्मात्मा भी इन्द्रियों के अवलम्बन बिना ही आत्मा को अनुभवते हैं। इसप्रकार आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञानस्वरूप है।"
इसप्रकार आत्मा का स्वरूप भले प्रकार समझाकर अन्त में वज्रायुधकुमार ने कहा - "जीव का नित्यपना-क्षणिकपना, बंध-मोक्ष, कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि सब अनेकान्त-नयों से ही सिद्ध होता है, इसलिए हे भव्य जीव! तुम अनेकान्तमय जैनधर्मानुसार सम्यक्श्रद्धा करके आत्मा का कल्याण करो।"
इसप्रकार पण्डित वेष में आये हुए उस देव ने जो भी प्रश्न पूछे, उन सबका समाधान वज्रायुधकुमार ने गंभीरता और दृढ़ता से अनेकान्तानुसार किया। भरत क्षेत्र के भावी तीर्थंकर वज्रायुध के श्रीमुख से ऐसी सुन्दर धर्म-चर्चा सुनकर विदेह के समस्त सभाजन अति प्रसन्न हुए। उनके वचन सुनकर तथा उनके तत्त्वार्थश्रद्धान की दृढ़ता देखकर वह मिथ्यादृष्टि देव भी जैनधर्म का स्वरूप समझकर सम्यग्दृष्टि हो गया।
कुछ समय पश्चात् वज्रायुध के पिता क्षेमंकर तीर्थंकर संसार से विरक्त हुए। वज्रायुधकुमार का राज्याभिषेक करके, बारह अनुप्रेक्षाओं के चिन्तनपूर्वक वे स्वयं दीक्षा लेकर मुनि हुए। आत्मध्यान द्वारा अल्पकाल में केवलज्ञान प्रकट किया और समवसरण में दिव्यध्वनि द्वारा भव्यजीवों को धर्मोपदेश देने लगे।
इधर, वज्रायुध महाराजा रत्नपुरी का शासन चला रहे थे; उनके शास्त्रागार में अचानक सुदर्शनचक्र प्रकट ॥ हुआ और छहों खण्डों पर विजय पाकर उन्होंने चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। पिताजी धर्मचक्री हुए और पुत्र १५
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