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को ज्ञानप्राप्ति या पूर्वजन्म के संस्कार भी नहीं रहेंगे और प्रत्यभिज्ञान, जातिस्मरण ज्ञान आदि का भी लोप हो जायेगा; इसलिए जीव को सर्वथा क्षणिकपना नहीं है। और यदि जीव को सर्वथा नित्य माना जाये तो | बंध-मोक्ष नहीं बन सकेंगे, अज्ञान दूर करके ज्ञान करना या क्रोधादि की हानि या ज्ञानादि की वृद्धि नहीं | बन सकेगी, पुनर्जन्म भी नहीं बन सकेगा; गति का परिवर्तन भी किसप्रकार होगा ? इसलिए जीव सर्वथा
नित्य भी नहीं है। एक ही जीव एक साथ नित्य तथा अनित्य ऐसे अनेक धर्मस्वरूप हैं, (आत्मा द्रव्य की | दृष्टि से नित्य है, पर्याय की दृष्टि से देखें तो वह पलटता है।) आत्मा के इन परस्पर विरोधी दो धर्मों का एक साथ होने को ही अनेकान्त कहते हैं। उसीप्रकार जीवादि तत्त्वों में जो अपने गुण-पर्याय हैं, उनसे वह सर्वथा अभिन्न नहीं है; वह तो अनेकान्त स्वरूप है।" __इसप्रकार विद्वान पण्डित के वेश में आया हुआ वह देव भी वज्रायुध की विद्वता से मुग्ध हो गया। मन में प्रसन्न होकर अभी विशेष परीक्षा के लिए उसने पूछा कि “हे कुमार ! आपके वचन बुद्धिमत्तापूर्ण तथा आनन्दप्रद हैं। अब यह समझायें कि - क्या जीव कर्मादि का कर्ता है ? या सर्वथा अकर्ता है ?"
उत्तर में वज्रायुध ने कहा - "जीव को घट-पट-शरीर-कर्म आदि परद्रव्य का कर्ता उपचार से कहा जाता है, वास्तव में जीव उनका कर्ता नहीं है। अशुद्धनय से जीव अपने रागादि भावों का कर्ता है; परन्तु वह कर्तापना छोड़ने योग्य है, शुद्धनय से जीव क्रोधादि का कर्ता भी नहीं है, वह अपने सम्यक्त्वादि शुद्ध चेतन भावों का ही कर्ता है; वह उसका स्वभाव है।" विद्वान के रूप में आये देव ने फिर पूछा - "जीव कर्म के फल का भोक्ता है ? या नहीं ?"
वज्रायुध ने उत्तर दिया - "अशुद्धनय से जीव अपने किये हुए कर्मो का फल भोगता है, शुद्धनय से वह कर्मफल का भोक्ता नहीं है, अपने स्वाभाविक सुख का ही भोक्ता है।"
देव - “जो जीव कर्म करता है, वही उसके फल का भोक्ता है ? या कोई दूसरा?" वज्रायुध - “एक पर्याय में जीव शुभाशुभ कर्म को करता है और दूसरी पर्याय में (अथवा दूसरे जन्म
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