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________________ CREEN IFE भी उन्हें आश्चर्य नहीं हुआ; क्योंकि वे जानते थे कि मैंने पूर्वभव में आत्मा की आराधना की है और वह आराधना करते हुए साथ में जो राग शेष रह गया उसका यह फल है। इस वैभव का एक रजकण भी मेरे आत्मा का नहीं है, सब कुछ मुझसे भिन्न ही है। इसप्रकार निर्मोह रूप से धर्म की महिमापूर्वक सर्वप्रथम उन्होंने इन्द्रलोक में विराजमान जिनप्रतिमा की भक्ति सहित पूजा की और पश्चात् इन्द्रपद स्वीकार किया। | ऐसा करके उन्होंने अपना ऐसा भाव प्रकट किया है कि "हे जिनदेव ! हमें यह स्वर्ग वैभव इष्ट नहीं है, हमें तो आप जैसा वीतरागी आत्मवैभव ही इष्ट है।" उन अच्युत इन्द्र को अवधिज्ञान तथा विक्रियादि ऋद्धियाँ थीं। वे बारम्बार तीर्थंकरों के पंचकल्याणक में जाते, इन्द्रसभा में सम्यग्दर्शन की चर्चा करके उसकी | अपार महिमा प्रकट करते और चारित्रदशा की भावना भाते । देखो! जीवों के परिणामों की कैसी विचित्रता है। त्रिखण्ड का राजवैभव भोगने में अपराजित और अनन्तवीर्य दोनों साथ थे; तथापि एक तो विशुद्ध परिणाम के कारण स्वर्ग में गया और दूसरा संक्लेश परिणाम के कारण नरक में। उसने नरक में तीव्र वेदना के निमित्त से पुन: सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया। फिर भी दो भाइयों में से एक असंख्य वर्षों तक स्वर्ग में और दूसरा असंख्यात वर्ष तक नरक में। ___ अन्त में वह अनन्तवीर्य का जीव सम्यक्त्व का पालन करते हुए नरक की घोर यातना से छूटकर भरतक्षेत्र में विद्याधरों का स्वामी मेघनाद राजा हुआ। एक बार वह मेघनाद मेरुपर्वत के नन्दनवन में विद्या साध रहा था, ठीक उसीसमय अच्युतेन्द्र भी वहाँ जिनवन्दना हेतु आये और उन्होंने मेघनाद को देखकर कहा “हे - मेघनाद! पूर्वभव में हम दोनों भाई थे; मैं अच्युतेन्द्र हुआ हूँ और तू नरक में गया था, वहाँ से निकलकर मेघनाद विद्याधर हुआ। विषय-भोगों की तीव्र लालसा से तूने घोर नरक-दुःख भोगे । उनका स्मरण करके अब सावधान हो; इन विषय-भोगों को छोड़ और संयम की साधना कर! तुझे सम्यग्दर्शन तो है ही, चारित्र धर्म को अंगीकार कर! तृष्णा की आग विषय-भोगों द्वारा शांत नहीं होती; अपितु चारित्रजल से ही शांत | होती है; इसलिए तू आज ही भोगों को तिलांजलि देकर परमेश्वरी जिनदीक्षा धारण कर!" अपने भाई अच्युत इन्द्र के मुँह से चारित्र की महिमा तथा वैराग्य का महान उपदेश सुनकर उस मेघनाद 4 NFEF
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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