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| पश्चाताप सहित नरक के घोरातिघोर दुःखों को सहन करता हुआ वह अनन्तवीर्य का जीव (भावी गणधर | का जीव) अपनी असंख्यात वर्ष की नरकायु का एक-एक पल रो-रो कर काट रहा था और दूसरी ओर उसके भाई अपराजित बलभद्र को अपने भ्राता अनन्तवीर्य वासुदेव की अचानक मृत्यु हो जाने से गहरा आघात लगा। "मेरे भाई की मृत्यु हो चुकी है" - ऐसा स्वीकार करने को उनका मन तैयार नहीं था। यद्यपि स्वात्मतत्त्व के संबंध में उससमय उनका ज्ञान जाग्रत था; किन्तु वे भ्रातृस्नेह के कारण मृतक को जीवित मानने की परज्ञेय संबंधी भूल कर बैठे। वे अनन्तवीर्य के मृत शरीर को कन्धे पर उठाकर इधर-उधर घूमते | फिरे, उसके साथ बात करने की तथा खिलाने-पिलाने की चेष्टायें करते थे। औदयिक भाव की विचित्रता || तो देखो कि सम्यक्त्व की भूमिका में स्थित एक भावी तीर्थंकर मृत शरीर को लेकर छह महीने तक फिरते | रहे, किन्तु धन्य है उनकी सम्यक्त्व चेतना को...जिसने अपनी आत्मा को उस औदयिकभाव से भिन्न ही | रखा। सौभाग्य से उसीकाल में उन बलभद्रजी को यशोधर मुनिराज मिल गये। उन्होंने बलभद्र को उपदेश देकर कहा कि "हे राजन्! तुम तो आत्मतत्त्व के ज्ञाता हो। इसलिए अब इस बन्धुमोह को तथा शोक को छोड़ो और संयम धारण करके अपना कलयाण करो। छह भव के पश्चात् तो तुम भरतक्षेत्र में तीर्थंकर बनोगे; ये मोह की चेष्टाएँ तुम्हें शोभा नहीं देतीं; इसलिए अपने चित्त को शान्त करो और उपयोग को आत्मध्यान में लगाओ।"
मुनिराज का उपदेश सुनते ही बलदेव को वैराग्य उत्पन्न हुआ, उनकी चेतना चमक उठी - "अरे, कौन किसका भाई ? जहाँ यह शरीर ही अपना नहीं है वहाँ दूसरा कौन अपना होगा ?" ऐसा विचारकर उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा लेकर उन अपराजित मुनिराज ने अपना मन आत्मसाधना में ही लगाया और अन्त समय में उत्तम ध्यानपूर्वक शरीर त्याग कर वे महात्मा सोलहवें अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुए।
भगवान शान्तिनाथ : पाँचवाँ पूर्वभव अच्युत स्वर्ग में इन्द्र - भगवान शान्तिनाथ जो अपराजित बलभद्र | थे वे मुनिदीक्षा लेकर समाधिमरण करके अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुए। वहाँ की आश्चर्यजनक विभूति देखकर || १५
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