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________________ २१२ || रौद्र ध्यान में वर्तता हुआ वह पंचपरमेष्ठी को भी भूल गया । जिस धर्मानुराग के कारण वह ऐसे पुण्यभोगों श को प्राप्त हुआ था, उस धर्म को ही वह भूल गया। अपने भाई के साथ अनेकों बार वह प्रभु के समवसरण में भी जाता था और धर्मोपदेश भी सुनता था; परन्तु उसका चित्त तो विषय-भोगों से रंगा हुआ था । इसप्रकार चित्त मैला होने से उसे परमात्मा का संयोग भी लाभप्रद नहीं हुआ । तीव्र आरम्भ परिग्रह के कलुषित भाव के कारण वह अनन्तवीर्य रौद्रध्यानपूर्वक मरकर नरक में गया। ला का पु रु ष 1 IF 59 उ रा र्द्ध नरक में उपद्रव होते ही वह अर्धचक्रवर्ती का जीव महाभयंकर बिल से औंधे सिर नीचे की कर्कशभूमि पर जा गिरा । नरकभूमि के स्पर्शमात्र से उसे इतना भयंकर दुख हुआ कि पुनः पाँच सौ धनुष ऊपर उछला और फिर नीचे गिरा । उसे असह्य शारीरिक वेदना थी; उसे देखते ही दूसरे हजारों नारकी मारने लग गये । ऐसे भयंकर दुःख देखकर उसे विचार आया कि “अरे, मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ? मुझे अकारण ही इतना दुःख देनेवाले यह क्रूर जीव कौन है ? मुझे क्यों इतनी भयंकर पीड़ा दी जा रही है ? अरे रे, मैं कहाँ | जाऊँ? अपना दुःख किससे कहूँ ? यहाँ कौन मुझे बचायेगा ? भीषण ताप और भूख-प्यास के कारण मुझे मृत्यु से भी अधिक वेदना हो रही है; मुझे बहुत प्यास लगी है, लेकिन पानी कहाँ मिलेगा? इसप्रकार दु:खों से चिल्लाता हुआ वह जीव इधर से उधर भटकने लगा । वहाँ उसे कुअवधिज्ञान हुआ और उसने जाना कि “अरे, यह तो नरक भूमि है, पापों के फल से मैं नरकभूमि में आ पड़ा हूँ और यह | सब नारकी तथा असुर देव मुझे भयंकर दुःख देकर मेरे पापों का फल चखा रहे हैं। अरे रे ! दुर्लभ मनुष्यभव विषयभोगों में गंवाकर मैं इस घोर नरक में पड़ा हूँ। मुझ मूर्ख ने पूर्वभव में धर्म के फल में भोगों की चाह करके सम्यक्त्वरूपी अमृत को ढोल दिया और विद्यमान विषयों की लालसा की । उस भूल के कारण मुझे | वर्तमान में कैसे भयंकर दुःख भोगने पड़ रहे हैं । अरे रे! विषयों में तो मुझे किंचित् सुख नहीं मिला, बाह्य विषयों में सुख है ही कहाँ ? सुख तो आत्मा में है । अतीन्द्रिय आत्मसुख की प्रतीति करके मैं पुन: अपने | सम्यक्त्व को ग्रहण करूँगा, ताकि फिर कभी ऐसे नरकों के दुःख नहीं सहना पड़े।" इसप्रकार एक ओर ती र्थं क र शा न्ति ना थ पर्व १५
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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